बारिश थमने के बाद संक्रामक बीमारियों का हमला

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उत्तर प्रदेश में बारिश थमने के बाद पसरा कीचड और गंदगी संक्रामक बीमारियों को दावत दे रहा है और कई इलाकों में डेंगू,मलेरिया, डायरिया,वायरल फीवर और उल्टी दस्त से ग्रसित मरीजों की तादाद में खासा इजाफा हुआ है। शहरी क्षेत्रों के निचले इलाकों में बसे मोहल्लों और मलिन बस्तियां खासकर संक्रामक रोगों की चपेट में है जबकि ग्रामीण अंचलों में खेतों,गलियों और चौपालों में पसरा कीचड और बजबजाती नालियां मच्छर पनपने में सहायक सिद्ध हो रही हैं। सरकारी हैंडपंपों में मटमैला और बदबूदार पानी आने की समस्या आम हो चुकी है। चिकित्सकों ने प्रभावित क्षेत्रों में जाकर लोगों को पानी उबाल कर पीने और बासी भोजन से परहेज की सलाह दी है।
लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल, सिविल अस्पताल और राम मनोहर लोहिया अस्पताल समेत कई अस्पतालों के बाहृय रोगी विभाग में मरीजों की तादाद में खासी बढोत्तरी हुयी है। सिविल अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सक डा0 अशोक यादव ने बताया कि खासी जुकाम बुखार के अलावा उल्टी दस्त से पीडित मरीजों को मुफ्त दवायें और ओआरएस घोल मुहैया कराया जा रहा है। उन्होने कहा कि दो सप्ताह से ज्यादा लगातार खांसी आने अथवा बलगम के साथ खून आने पर मरीज को तत्काल डाक्टर से संपर्क करना चाहिये।

बदलते मौसम में बीमारियों की बाढ से झोलाछाप डाक्टरों की निकल पडी है। सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों और जिला अस्पताल में कतार लगाने से बचने के लिये मरीज झोलाछाप डाक्टरों की शरण में जा रहे है अथवा पास के मेडिकल स्टोर से बीमारी के लक्षण बता कर दवा खरीद रहे है। हालांकि चिकित्सक इसे सही नही मानते। डा0 यादव ने कहा कि ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं में और अधिक तवज्जो देने की जरूरत है। झोलाछाप डाक्टर से इलाज कराने से कई बार गंभीर परिणाम सामने आते हैं।
वातावरण में नमी की मात्रा बढने से उमस में इजाफा हुआ है। चिपचिपी गर्मी से निजात पाने के लिये लोगबाग एक बार फिर बारिश होने की दुआ मांगने लगे है हालांकि किसान धान की बुवाअी में व्यस्त है। किसानों का पूरा परिवार रात दिन एक कर खेतो में भरे पानी में धान के बीज रोपने में जुटा हुआ है। इसके चलते ग्रामीण इलाकों में स्थित सरकारी स्कूलों में बच्चों की तादाद में उल्लेखनीय कमी आयी है। हाजिरी पूरी करने के लिये प्राथमिक विद्यालयों के प्रधानाचार्य और शिक्षक घर घर जाकर अभिभावकों से बच्चों को स्कूल भेजने की अपील कर रहे हैं जबकि अभिभावकों का कहना है है कि खेतिहर मजदूरों की कमी और मजदूरी के बढे भाव से बचने के लिये वे बच्चों को छोटे मोटे कामकाज में शामिल करने को मजबूर हैं।