भारत में महिला सुरक्षा एक ऐसा मुद्दा है जो लंबे समय से सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी बहस का विषय बना हुआ है। हालांकि पिछले कुछ दशकों में महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई सख्त कानून बनाए गए हैं, लेकिन क्या सिर्फ कानूनों के होने से ही महिलाएं सुरक्षित हो जाती हैं? क्या व्यवहार में उन कानूनों को प्रभावी रूप से लागू किया जाता है? क्या सामाजिक सोच में कोई बदलाव आया है? इस लेख में हम गहराई से समझेंगे कि क्या सिर्फ कानूनों से महिला सुरक्षा सुनिश्चित हो सकती है या इससे कहीं ज़्यादा की आवश्यकता है।
भारत में महिला सुरक्षा की वर्तमान स्थिति :भारत में महिलाएं घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, एसिड अटैक, साइबर क्राइम, कार्यस्थल पर उत्पीड़न, मानव तस्करी जैसे गंभीर अपराधों का शिकार होती रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्टों के अनुसार हर दिन औसतन 80 से अधिक महिलाएं यौन हिंसा की शिकार होती हैं। इन अपराधों के बावजूद, शिकायत दर्ज करने से लेकर न्याय मिलने तक का रास्ता इतना जटिल और लंबा है कि कई पीड़िताएं सामने आने की हिम्मत भी नहीं कर पातीं।
कानूनों की स्थिति – क्या वे पर्याप्त हैं? : भारत में महिलाओं की सुरक्षा के लिए निम्नलिखित प्रमुख कानून लागू हैं:
धारा 354 (IPC): महिला की मर्यादा भंग करने से संबंधित धारा 376 (IPC): बलात्कार के लिए सजा POSH Act 2013: कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकने हेतु घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (POCSO) निर्भया फंड 2013 :निर्भया फंड भारत सरकार द्वारा वर्ष 2013 में शुरू की गई एक विशेष योजना है, जिसका उद्देश्य महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण सुनिश्चित करना है। इस फंड की स्थापना 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया गैंगरेप कांड के बाद की गई थी, जिसने पूरे देश को झकझोर दिया और महिला सुरक्षा को लेकर एक राष्ट्रीय बहस खड़ी कर दी।
निर्भया फंड का उद्देश्य : इस फंड का मुख्य उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ हिंसा की घटनाओं को रोकने, उन्हें समय पर सहायता देने और सुरक्षित सार्वजनिक व निजी वातावरण सुनिश्चित करने के लिए योजनाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करना है। यह फंड महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अंतर्गत संचालित होता है, लेकिन इसके तहत कई मंत्रालयों द्वारा विभिन्न परियोजनाएं चलाई जाती हैं।
फंड के प्रमुख उपयोग : निर्भया फंड के तहत विभिन्न परियोजनाओं और योजनाओं को क्रियान्वित किया गया है, जिनमें मुख्यतः निम्न शामिल हैं:
वन स्टॉप सेंटर (OSC) : पीड़ित महिलाओं को एक ही स्थान पर पुलिस सहायता, कानूनी सहायता, काउंसलिंग, चिकित्सा सुविधा और अस्थायी आश्रय प्रदान करने के लिए।
181 महिला हेल्पलाइन : एक अखिल भारतीय टोल फ्री हेल्पलाइन जो संकट में फंसी महिलाओं को तत्काल सहायता प्रदान करती है।
सीसीटीवी कैमरा योजना : सार्वजनिक स्थलों, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन आदि पर सीसीटीवी कैमरे लगाकर महिलाओं की सुरक्षा बढ़ाना।
सुरक्षित सिटी परियोजना : दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, हैदराबाद, अहमदाबाद, चेन्नई सहित 8 बड़े शहरों में महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशेष उपाय लागू करना।
महिला हेल्प डेस्क : देश भर के पुलिस थानों में महिला फ्रेंडली हेल्प डेस्क स्थापित करना।
वित्तीय पक्ष : प्रारंभ में सरकार ने इस फंड में ₹1,000 करोड़ की राशि आवंटित की थी। इसके बाद हर वर्ष इस फंड को और राशि दी जाती रही। 2021 तक कुल ₹6,200 करोड़ से अधिक का आवंटन किया जा चुका है।
मुख्य चुनौतियाँ : कम उपयोग: कई राज्यों ने अब तक इस फंड का पूरा उपयोग नहीं किया है। धीमा कार्यान्वयन : योजनाओं की प्रगति धीमी रही है, जिससे अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाए। प्रशासनिक जटिलता : फंड का इस्तेमाल करने के लिए लंबी प्रक्रिया और कई विभागों की मंजूरी आवश्यक होती है।
निर्भया फंड एक सकारात्मक पहल है जो महिलाओं की सुरक्षा और सहायता हेतु वित्तीय आधार प्रदान करता है। लेकिन इसका प्रभाव तभी अधिक हो सकता है जब राज्य सरकारें इसका पूर्ण और पारदर्शी उपयोग करें। बेहतर योजना, निगरानी और संवेदनशीलता के साथ इस फंड का उपयोग महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक मजबूत कदम साबित हो सकता है।
महिलाओं की सुरक्षा से जुड़ी सामाजिक चुनौतियाँ : भारत में महिलाओं की सुरक्षा केवल कानून या पुलिस व्यवस्था का विषय नहीं है, बल्कि यह एक गंभीर सामाजिक चुनौती भी है। समाज की मानसिकता, पितृसत्तात्मक सोच और असमान लिंग दृष्टिकोण महिलाओं की सुरक्षा को प्रतिदिन संकट में डालते हैं। भले ही देश में सख्त कानून बनाए गए हों, लेकिन जब तक सामाजिक स्तर पर बदलाव नहीं आता, तब तक महिलाओं के लिए सुरक्षित वातावरण बनाना कठिन रहेगा।
1. पितृसत्तात्मक मानसिकता (Patriarchal Mindset) : भारतीय समाज में पुरुष प्रधान सोच गहराई तक फैली हुई है। आज भी बहुत-से परिवारों में लड़कियों को शिक्षा, करियर और निर्णय लेने के अधिकारों से वंचित रखा जाता है। महिलाओं को आज भी कमजोर, निर्भर और "संरक्षण योग्य" मानने की सोच सुरक्षा को बाधित करती है।
2. बलात्कार के बाद पीड़िता पर दोषारोपण : कई बार बलात्कार या यौन शोषण के मामलों में समाज पीड़िता के कपड़े, चाल-ढाल या चरित्र पर सवाल उठाता है। यह दृष्टिकोण न केवल पीड़िता को न्याय से वंचित करता है, बल्कि अपराधियों को सामाजिक मौन समर्थन भी देता है।
3. सामाजिक चुप्पी और शर्म की संस्कृति : महिलाओं के साथ हुए उत्पीड़न को अक्सर परिवार और समाज "बदनामी" के डर से छिपा लेते हैं। इससे अपराधी बेखौफ रहते हैं और पीड़िता न्याय के लिए आगे नहीं आ पाती।
4. शिक्षा और जागरूकता की कमी : ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में महिलाओं और पुरुषों दोनों में लिंग समानता, यौन शोषण और कानूनी अधिकारों की जानकारी का अभाव है। इससे महिलाओं को शोषण का शिकार होना पड़ता है और वे विरोध नहीं कर पातीं।
5. मीडिया और सिनेमा की भूमिका : सिनेमा और विज्ञापनों में महिलाओं को अक्सर एक भोग्य वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिससे युवाओं की मानसिकता पर नकारात्मक असर पड़ता है।
6. सामाजिक संस्थानों की निष्क्रियता : विद्यालय, पंचायत, धार्मिक संगठन आदि संस्थान महिलाओं के अधिकारों और सुरक्षा पर गंभीर चर्चा या पहल नहीं करते, जिससे बदलाव की गति धीमी रहती है।
2. कठुआ गैंगरेप (2018) :कठुआ गैंगरेप और मर्डर केस भारत के इतिहास की उन घटनाओं में से एक है, जिसने न केवल मानवता को शर्मसार किया बल्कि देश की धार्मिक-सामाजिक और राजनीतिक संवेदनाओं को भी हिला कर रख दिया। यह मामला सिर्फ एक बलात्कार नहीं था, बल्कि एक बच्ची को उसकी जाति और धार्मिक पहचान के कारण शिकार बनाए जाने की वीभत्स कहानी थी।
घटना का विवरण :
यह मामला जम्मू और कश्मीर के कठुआ जिले के रासना गांव का है। पीड़िता एक 8 वर्षीय बकरवाल (घुमंतू मुस्लिम समुदाय) की बच्ची थी। 10 जनवरी 2018 को वह लापता हो गई थी और एक सप्ताह बाद 17 जनवरी को उसकी लाश जंगल में मिली। जांच में सामने आया कि बच्ची को एक मंदिर में बंधक बनाकर कई दिनों तक नशा देकर गैंगरेप किया गया, फिर पत्थरों से कुचलकर हत्या कर दी गई।अपराध का मकसद : जांच में यह सामने आया कि यह कृत्य सिर्फ यौन हिंसा नहीं था, बल्कि साम्प्रदायिक नफरत से प्रेरित था। आरोपियों का उद्देश्य बकरवाल समुदाय को उस इलाके से डराकर भगाना था ताकि वे जमीन पर कब्जा कर सकें।
मुख्य आरोपी और जांच: मुख्य आरोपी एक सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी संजी राम था, जिसने इस योजना का मास्टरमाइंड बताया गया। उसके बेटे, भतीजे, पुलिसकर्मी सहित कुल 8 लोगों को आरोपी बनाया गया। मामले की जांच पहले जम्मू-कश्मीर पुलिस ने की, बाद में विशेष जांच दल (SIT) और फिर क्राइम ब्रांच ने इसे आगे बढ़ाया।
जनता की प्रतिक्रिया और विवाद: इस केस ने पूरे देश को क्रोध और दुख से भर दिया। लेकिन मामला तब और विवादास्पद हो गया जब कुछ राजनीतिक नेताओं और वकीलों ने आरोपियों के पक्ष में रैली निकाली। इससे देशभर में आक्रोश और "जस्टिस फॉर बेटी" नाम से आंदोलन शुरू हुआ।
न्याय और फैसला: केस की सुनवाई पंजाब के पठानकोट में फास्ट ट्रैक कोर्ट में हुई। 10 जून 2019 को कोर्ट ने 6 आरोपियों को दोषी करार दिया।संजी राम सहित 3 को उम्रकैद, जबकि 3 पुलिसकर्मियों को सबूत नष्ट करने के आरोप में 5 साल की सजा सुनाई गई।
3. वर्कप्लेस पर उत्पीड़न की कहानियाँ :#MeToo आंदोलन ने साफ़ किया कि उच्च शिक्षित और शहरी महिलाएं भी असुरक्षित महसूस करती हैं।
सरकारी योजनाएँ और उनका असर 1. वन स्टॉप सेंटर (OSC): यह केंद्र पीड़ित महिलाओं को एक ही स्थान पर पुलिस, मेडिकल और काउंसलिंग जैसी सेवाएं उपलब्ध कराते हैं, लेकिन इनकी संख्या और पहुंच अब भी सीमित है।
2. महिला हेल्पलाइन (181): सरकार की इस योजना से मदद मांगना आसान हुआ है, पर कई बार रेस्पॉन्स टाइम और लोकल क्रियान्वयन कमजोर होता है।
3. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ: इसका उद्देश्य बेटियों को जन्म से ही बराबरी का दर्जा देना है, पर ज़मीनी स्तर पर इसका असर धीमा है।
आज के दौर में महिलाएं हर क्षेत्र में सफलता की नई ऊँचाइयाँ छू रही हैं – शिक्षा, प्रशासन, विज्ञान, मीडिया, कॉर्पोरेट, फिल्म, खेल आदि। लेकिन एक सच्चाई जो अक्सर छिपा दी जाती है, वह है – वर्कप्लेस पर यौन उत्पीड़न (Sexual Harassment at Workplace)। यह समस्या आज भी बड़े पैमाने पर मौजूद है, खासकर तब जब पीड़िता को बोलने का मौका, विश्वास या समर्थन नहीं मिलता।
क्या है वर्कप्लेस उत्पीड़न?: वर्कप्लेस पर उत्पीड़न का मतलब है किसी महिला को उसके कार्यस्थल पर किसी सहकर्मी, वरिष्ठ अधिकारी या मालिक द्वारा यौन टिप्पणी, अनुचित शारीरिक स्पर्श, अश्लील संदेश, घूरना, या मानसिक दबाव देना, जिससे उसका काम प्रभावित हो या वह असहज महसूस करे।
कहानियाँ जो सामने आईं – MeToo आंदोलन की भूमिका: 2018 में भारत में शुरू हुए #MeToo मूवमेंट ने कई हाई-प्रोफाइल मामलों को उजागर किया। महिलाएं सोशल मीडिया पर सामने आईं और उन्होंने अपने साथ हुए उत्पीड़न की कहानियाँ साझा कीं। कुछ प्रमुख उदाहरण:
तनुश्री दत्ता ने अभिनेता नाना पाटेकर पर फिल्म की शूटिंग के दौरान अनुचित व्यवहार का आरोप लगाया। कई महिलाओं ने वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए, जिनके चलते उन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। विज्ञापन, मीडिया, स्टार्टअप्स और कॉर्पोरेट कंपनियों में भी कई नाम सामने आए। इन घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया कि उत्पीड़न केवल छोटे स्तर पर नहीं, बल्कि उच्च पदों पर भी मौजूद है।
क्यों नहीं बोलती महिलाएं?
नौकरी खोने का डर करियर पर असर सहकर्मियों द्वारा मज़ाक उड़ाया जाना बदनामी और सामाजिक अपमान प्रबंधन द्वारा गंभीरता से न लिया जाना, ये सभी कारण महिलाओं को चुप रहने पर मजबूर करते हैं।कानूनी सुरक्षा: POSH Act, 2013: भारत में वर्कप्लेस पर यौन उत्पीड़न रोकने के लिए "Prevention of Sexual Harassment (POSH) Act, 2013" लागू है। इसके तहत: हर संस्था में Internal Complaints Committee (ICC) बनाना अनिवार्य है। शिकायतकर्ता की पहचान गोपनीय रखी जाती है। दोषी पाए जाने पर कड़ी कार्रवाई का प्रावधान है।
क्या सिर्फ कानून काफी हैं?: नहीं, सिर्फ कानून काफी नहीं हैं। कानून एक संरचना देते हैं, परंतु जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक महिलाएं असुरक्षित रहेंगी। भारत जैसे देश में जहाँ विविधता, परंपरा और पितृसत्तात्मक सोच गहराई तक फैली है, वहां कानूनों के साथ-साथ सामाजिक, शैक्षिक और मानसिक बदलाव भी जरूरी हैं। महिला सुरक्षा एक साझा जिम्मेदारी है – परिवार, समाज, शासन और स्वयं महिलाओं की।