नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट में हलाल प्रमाण पत्र पर चल रही सुनवाई ने एक नया मोड़ ले लिया है। हाल ही में हुई सुनवाई में उत्तर प्रदेश सरकार ने अदालत को बताया कि सिर्फ मांसाहारी उत्पाद ही नहीं, बल्कि सीमेंट, लोहे की छड़, साबुन और कॉस्मेटिक जैसे उत्पादों के लिए भी हलाल प्रमाण पत्र दिए जा रहे हैं, जिसके एवज में करोड़ों रुपए जुटाए जा रहे हैं। सरकार ने इस मुद्दे को सामानों की बढ़ती कीमतों से जोड़ते हुए इसे आर्थिक रूप से भी नुकसानदायक बताया है।
हलाल प्रमाण पत्र को लेकर विवाद बढ़ता ही जा रहा है। जमीयत उलमा-ए-हिंद हलाल ट्रस्ट ने हलाल सर्टिफिकेशन की प्रक्रिया को हर भारतीय उपभोक्ताओं के अधिकार का हिस्सा बताया है। उनका कहना है कि उपभोक्ताओं को यह जानने का पूरा हक है कि वे जो उत्पाद खरीद रहे हैं, वह उनकी धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप है या नहीं। हालांकि, सरकार का रुख बिल्कुल अलग है। 20 जनवरी 2025 को हुई पिछली सुनवाई में सॉलिसिटर जनरल (SG) तुषार मेहता ने अदालत में कहा था कि हलाल प्रमाणन की यह प्रक्रिया अब हास्यास्पद हो गई है। उन्होंने कहा था, “हलाल मांस तो समझ में आता है, किन्तु अब तो सीमेंट, सरिया, पानी की बोतलें, आटा और बेसन तक के हलाल प्रमाण पत्र जारी हो रहे हैं। सवाल यह उठता है कि आटा और बेसन हलाल या गैर-हलाल कैसे हो सकते हैं?”
क्या होता है हलाल मांस : इस्लामिक कानून के मुताबिक केवल एक मुस्लिम द्वारा मारा गया पशु ही हलाल होता है। इसमें तेज चाकू से जानवर की नस, गर्दन और सांस की नली इस तरह से काटी जाती है कि जानवर का सर धड़ से अलग न हो। तड़पते जानवर के शारीर से पूरा रक्त बहने दिया जाता है और इस दौरान कुरान की आयतें पढ़ी जाती हैं। यदि इस तरह से जानवर न मारा गया हो, तो उसे इस्लाम में हलाल नहीं माना जाएगा। भारत में कौन देता है हलाल सर्टिफिकेट :भारत में भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण यानी FSSAI को तमाम तरह के खाद्य पदार्थों पर सर्टिफिकेट जारी करने का अधिकार है, किन्तु हलाल पर उसका भी बस नहीं है। देश में हलाल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, हलाल सर्टिफिकेशन सर्विसेज इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, जमीयत उलमा-ए-महाराष्ट्र, जमीयत उलमा-ए-हिंद हलाल ट्रस्ट जैसे संगठन हैं, जो हलाल सर्टिफिकेट जारी करते हैं। इस प्रक्रिया में पैसा भी लगता है, अब जो कंपनियां हलाल सर्टिफिकेट प्राप्त करने के लिए इन संगठनों को भुगतान करती हैं, वो अपना पैसा ग्राहकों से वसूलती हैं। साथ ही इस प्रमाणपत्र को प्राप्त करने के लिए कंपनियों को कई बार अपने उत्पादों और कार्यशैली में बदलाव भी करने पड़ते हैं।
हलाल सर्टिफिकेट के कारण बढ़ रही महंगाई :सरकार का यह भी आरोप है कि हलाल प्रमाण पत्र जारी करने वाली एजेंसियों ने इस प्रक्रिया के जरिए करोड़ों रुपए का कारोबार खड़ा कर लिया है। सरकार के अनुसार, इस प्रमाण पत्र के चलते सामानों की कीमतें बढ़ रही हैं और एक समानांतर 'हलाल इकॉनमी' बनाई जा रही है, जिसका इस्तेमाल कट्टरपंथ को बढ़ावा देने और आतंकवाद को फंडिंग करने में किया जा सकता है। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि हलाल केवल एक प्रमाण पत्र नहीं है, बल्कि जानवर को काटने की एक विशेष इस्लामिक प्रक्रिया भी है। हलाल पद्धति में जानवर को धीरे-धीरे काटा जाता है, इसके विपरीत, हिंदू और सिख परंपराओं में झटका मांस की प्रक्रिया अपनाई जाती है, जिसमें जानवर को एक ही झटके में मार दिया जाता है, ताकि उसे कम से कम दर्द हो।
इसके अलावा, हलाल मीट के लिए एक और शर्त होती है - जानवर को सिर्फ मुस्लिम व्यक्ति ही काट सकता है। इस नियम के चलते मीट कारोबार में मुस्लिमों का एकाधिकार बढ़ रहा है और हिंदू-सिख कारोबारियों को हलाल प्रमाण पत्र नहीं मिल पाता, जिससे उनका व्यवसाय प्रभावित हो रहा है। अब तो स्थिति यह है कि सरिया, साबुन और कॉस्मेटिक्स जैसे उत्पादों पर भी हलाल का ठप्पा लगाया जा रहा है। इसके लिए दलील दी जाती है कि कई कास्मेटिक प्रोडक्ट्स में सूअर की चर्बी और अल्कोहल का इस्तेमाल किया जाता है, जो कि इस्लाम में हराम है, ऐसे में मुस्लिम उन उत्पादों को इस्तेमाल नहीं करते। अब कंपनियों को विदेशों में अपने उत्पाद निर्यात भी करने होते हैं, जिसके लिए हलाल सर्टिफिकेट जरूरी होता है और इसके लिए उन्हें इस्लामी संगठनों के पास जाना पड़ता है। किन्तु इसके बाद भी एक सवाल अब भी अनुत्तरित है कि फिर भी आटा, बेसन, सरिया, सीमेंट जैसी चीज़ें को हलाल सर्टिफिकेट की आवश्यकता क्यों पड़ती है ? और अगर किसी सर्टिफिकेट की आवश्यकता है भी, तो उसे सरकार के अधीन आने वाले विभाग द्वारा जारी किया जाना चाहिए, न कि स्वतंत्र संगठनों के द्वारा। ताकि, इसके एवज में मिला पैसा जनता के काम में लगे, ये स्वतंत्र संगठन इस पैसे का कहाँ उपयोग करते हैं, इसका कोई सटीक जवाब नहीं मिल सका है। कई इस्लामी देशों में भी हलाल सर्टिफिकेट सरकार द्वारा ही जारी किया जाता है।
हलाल सर्टिफिकेट के पैसों का कहाँ होता है इस्तेमाल?उत्तर प्रदेश सरकार का दावा है कि इस प्रमाण पत्र के लिए मोटी रकम वसूली जा रही है, जिससे एक व्यापक हलाल इकॉनमी बनाई जा रही है। सरकार का यह भी आरोप है कि इसी पैसे का उपयोग देश विरोधी गतिविधियों में किया जा रहा है। इस मामले में जमीयत उलमा-ए-हिंद की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। जमीयत कई ऐसे आतंकियों के लिए कानूनी मदद कर रही है, जिन्हें अदालत ने दोषी करार दिया है। उदाहरण के तौर पर, 2008 के अहमदाबाद बम ब्लास्ट केस में 38 दोषियों को अदालत ने सजा सुनाई थी। इस हमले में 56 लोगों की जान गई थी और 243 निर्दोष नागरिक घायल हुए थे। जमीयत ने इन दोषियों के बचाव में ऊपरी अदालत में मुकदमा लड़ने का बीड़ा उठाया है।
यह पहली बार नहीं है जब जमीयत ने आतंकियों को कानूनी मदद दी है। किसी भी आतंकी के पकड़े जाने पर जमीयत सबसे पहले उनके बचाव में उतरता है। संगठन का दावा रहता है कि इन लोगों को सिर्फ मुसलमान होने के कारण फंसाया जा रहा है। इसके बाद बड़े-बड़े वकील जमीयत की ओर से अदालत में पेश होते हैं। 2019 में लखनऊ में हिंदूवादी नेता कमलेश तिवारी की हत्या इस्लामिक कट्टरपंथियों ने उनके घर में घुसकर की थी। इस घटना का वीडियो भी वायरल हुआ था। इस हत्याकांड के आरोपियों को भी जमीयत कानूनी मदद दे रहा है। अब सवाल यह उठता है कि जमीयत के पास इतनी बड़ी फंडिंग कहां से आ रही है?
विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें हलाल इकॉनमी की बड़ी भूमिका हो सकती है। विदेशी फंडिंग की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या भारतीय उपभोक्ताओं का पैसा ही देश विरोधी गतिविधियों में इस्तेमाल किया जा रहा है? यूपी सरकार के फैसले के खिलाफ जमीयत उलमा-ए-हिंद ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है, जिसकी अगली सुनवाई मार्च के अंतिम सप्ताह में निर्धारित की गई है। अब देखना यह है कि अदालत इस विवादित मुद्दे पर क्या रुख अपनाती है। क्या हलाल प्रमाण पत्र पर रोक लगेगी या जमीयत के तर्कों को मान्यता मिलेगी, यह भविष्य के गर्भ में है।