नई दिल्ली : मुग़लों द्वारा किए गए अत्याचारों से भारत के इतिहास की किताबें भरी पड़ी हैं, हालाँकि, यहाँ स्कूली किताबों की बात नहीं हो रही, उसमे तो मुग़ल बहुत महान दर्शाए गए हैं। शायद इसके पीछे कोई छुपा हुआ एजेंडा हो, किन्तु स्वतंत्र इतिहासकारों और खुद मुगलों के लिए किताबें लिखने वालों ने उनकी क्रूरता का वर्णन बखूबी किया है। अक्सर भारत में आक्रमणकारियों की क्रूरता को ये कहकर कमतर बताने की कोशिश की जाती है, कि वो तो सिर्फ साम्राज्य फैलाने की जंग थी, उसका धर्म-मजहब से कोई लेना देना नहीं था। हालाँकि, ऐसे लोगों से सवाल पुछा जा सकता है कि यदि उस लड़ाई का धर्म-मजहब से कोई वास्ता नहीं था, तो फिर गुरु तेगबहादुर, गुरु गोबिंद सिंह से लेकर नन्हे साहिबजादों और शम्भाजी राजे तक सबको 'इस्लाम या मौत' में से किसी एक को चुनने के लिए क्यों कहा गया था ? साम्राज्य महान सम्राट अशोक ने भी बढ़ाया, किन्तु क्या उन्होंने किसी को बौद्ध धर्म अपनाने या मृत्यु का सामना करने का विकल्प दिया? सभी जानते हैं कि इसका उत्तर क्या है ?
औरंगज़ेब के शासन में गैर-मुस्लिमों पर जजिया कर लगाया गया, जो लोगों को जिन्दा रहने और अपनी धार्मिक आस्था का पालन करने के लिए मुग़ल शासन को चुकाना पड़ता था। क्या ये भी साम्राज्य बढ़ाने के लिए था? आज के लोग भले ही भ्रमित इतिहास के कारण मुग़लों से सहानुभूति रखते हों, किन्तु उस समय लोगों ने जो देखा, जो महसूस किया, और जो प्रताड़नाएं झेलीं, उसने उनके अंदर प्रतिकार की वो आग पैदा कर दी, जिसने मुगल सल्तनत को उखाड़कर ही दम लिया। ऐसे ही एक वीर थे बंदा सिंह बहादुर।
किस्सा बंदा सिंह बहादुर का :17वीं सदी खत्म होते-होते राजौरी (कश्मीर) के एक राजपूत परिवार में एक लड़के का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया लछमन देव, जो बचपन से ही तीरंदाजी, घुड़सवारी और शिकार में माहिर था। लेकिन उसकी ज़िन्दगी में एक घटना ऐसी घटी, जिसने उसे पूरी तरह से बदल डाला। एक दिन जब लछमन देव शिकार करने जंगल में गया, उसने एक हिरनी को निशाने पर लिया और तीर छोड़ा। तीर ने अपना काम कर डाला, और हिरनी वहीं ढेर हो गई। जब लछमन उसके पास गया, तो उसने पाया कि वह गर्भवती थी और पेट में दो बच्चे थे। उन दोनों ने उसकी आंखों के सामने दम तोड़ दिया। इस घटना ने उसके दिल पर गहरा असर डाला और उसने संसार से उचटकर साधु जीवन अपनाने का संकल्प लिया।
लछमन देव ने अपना नाम बदलकर माधो दास रख लिया और कई वर्षों तक साधु के रूप में दर-दर भटकते रहे। वह नासिक के पास पंचवटी पहुंचे और बाबा औघड़ नाथ के शिष्य बने। धीरे-धीरे उनकी ख्याति फैलने लगी और 21 साल की उम्र में उन्होंने नांदेड़ में अपना आश्रम स्थापित किया। सितंबर 1708 में गुरु गोविंद सिंह जी नांदेड़ पहुंचे। यहां माधो दास ने उनसे मुलाकात की, और वे गुरु के ज्ञान से प्रभावित हुए। गुरु गोविंद सिंह जी ने माधो दास को खालसा धर्म में दीक्षित किया और अपना शिष्य बना लिया। गुरु जी ने उन्हें 'गुरबक्श सिंह' नाम दिया और पंजाब में मुग़लों के खिलाफ युद्ध की जिम्मेदारी सौंप दी।
गुरु जी की आज्ञा से गुरबक्श सिंह, जो बाद में बंदा सिंह बहादुर के नाम से प्रसिद्ध हुए, पंजाब की ओर रवाना हुए। यह समय गुरु गोविंद सिंह के लिए अत्यंत कठिन था क्योंकि गुरु तेग बहादुर जी की हत्या के बाद सिखों और मुग़ल साम्राज्य के बीच युद्ध जारी था। गुरु गोविंद सिंह को आनंदपुर साहिब छोड़कर दक्षिण की ओर जाना पड़ा, और उन्होंने बंदा सिंह बहादुर को पंजाब भेजा ताकि वह सिखों का नेतृत्व करें और मुग़ल साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष करें। बंदा सिंह बहादुर की सेना में किसानों, सैनिकों और आम लोगों की बड़ी संख्या शामिल हो गई, जिन्होंने मुग़ल जुल्मों के खिलाफ विद्रोह किया।
1708 में औरंगज़ेब की मौत के बाद, मुग़ल साम्राज्य कमजोर हुआ और बादशाह बहादुर शाह की सेनाओं को दक्कन में व्यस्त होना पड़ा। इसी अवसर का लाभ उठाकर बंदा सिंह ने सतलज के किनारे स्थित किसानों को अपने पक्ष में किया और अपनी सेना को मजबूत किया। उन्होंने सोनीपत और कैथल में मुग़ल खज़ाने लूटे और 1709 में सरहिंद पर हमला किया, जो गुरु गोविंद सिंह के बेटों की हत्या के लिए प्रसिद्ध था। बंदा सिंह ने सरहिंद में एक महत्वपूर्ण युद्ध के बाद लौहगढ़ किले पर कब्ज़ा कर लिया। लौहगढ़ को अपनी राजधानी घोषित करते हुए उन्होंने गुरु गोविंद सिंह के नाम पर सिक्के जारी किए और पंजाब के कई क्षेत्र पर कब्ज़ा किया। 1710 तक बंदा सिंह की शक्ति पंजाब के एक बड़े हिस्से में फैल चुकी थी, जिससे दिल्ली और लाहौर के बीच संचार बाधित होने लगा।
लेकिन जब बहादुर शाह दक्कन के अभियान से लौटे, तो उन्होंने सिख साम्राज्य पर क़ाबू पाने का प्रयास किया। 1710 में, मुग़ल सेना ने सरहिंद पर हमला किया और लौहगढ़ किले को घेर लिया। बंदा सिंह बहादुर और उनके साथी घेराबंदी में थे, लेकिन उन्होंने किले से भागकर जंगलों की ओर रुख किया। इस समय मुग़ल सेना ने आदेश जारी किया कि जहां भी कोई सिख मिले, उसे मार डाला जाए। 1712 में बहादुर शाह की मौत के बाद, मुग़ल साम्राज्य में संघर्ष शुरू हो गया। इस स्थिति का फायदा उठाकर बंदा सिंह ने लौहगढ़ पर फिर से कब्ज़ा कर लिया। 1715 तक, समद खान और जकरिया खान ने बंदा सिंह बहादुर के खिलाफ एक अभियान शुरू किया, जो 3 वर्षों तक चला। अंततः दिसंबर 1715 में, बंदा सिंह बहादुर और उनके 700 सिखों को गिरफ्तार कर लिया गया।
युद्ध में मारे गए सिखों के सिर भाले में टांग कर पहले लाहौर के बाज़ार में परेड करवाई गई। और फिर उन्हें दिल्ली में बादशाह के सामने ले ज़ाया गया। औरंगज़ेब के दौर से ही शत्रुओं की नुमाइश का रिवाज था। औरंगज़ेब ने तो अपने भाई दाराशिकोह का सर भी काटकर अपने पिता शाहजहां को जेल में पहुँचाया था, फिर सिख तो उसके खुले दुश्मन थे, उन्हें अपमानित करना मुगलों के लिए शान की बात थी। बंदा सिंह और उनके साथियों को देखने के लिए दिल्ली में भाई भीड़ जमा हो गई।
समद ख़ां का बेटा ज़करिया ख़ां, मुगल सैनिकों का नेतृत्व कर रहा था। उसने अपमानित करने के लिए बंदा को शाही पोशाक पहनाई और हाथी के ऊपर बने एक पिंजरे में डाल दिया। वहीं, बाकी सिख योद्धाओं को बिना जीन ऊंट पर बिठा रखा था। इन ऊंटों के आगे सिखों के सिर भूसे से भरकर भालों और बांसों पर टंगे हुए थे। इन सब को बादशाह फ़र्रुख़सियर के सामने प्रस्तुत किया गया। फ़र्रुख़सियर ने बंदा और उनके 23 साथियों को मीर आतिश इब्राहिम-ओ-दीन-खां के सुपुर्द कर दिया। जिसके बाद उन्हें त्रिपोलिया जेल में कैद कर दिया गया।
बस दो ही विकल्प, इस्लाम या मौत :5 मार्च 1716 को सजा का ऐलान हुआ। सजा थी, सर कलम किया जाना। सिखों के मुंह से ना शब्द निकलते ही उनका सिर धड़ से अलग कर दिया जाता। उनसे यह नहीं पुछा जा रहा था कि आपको मुगलों की अधीनता स्वीकार है या नहीं? बल्कि चबूतरे पर एक-एक योद्धा को ले जाकर, एक ही सवाल पूछा जाता, क्या तुम इस्लाम क़बूल करते हो? हर सिख का सिर ना में हिलता गया और अगले ही पल गर्दन पर तलवार चल जाती। ये कत्लेआम 7 दिनों तक चला, इतना रक्त बहा कि कोतवाल सरबराह खां सजा देते-देते थक गया, तो उसने सजा पर रोक लगा दी। उसने फ़र्रुख़सियर से कहा कि कुछ दिन विश्राम लेते हैं। सिख कुछ दिन जुल्म सहेंगे। तो वे डरकर इस्लाम क़बूल कर लेंगे।
इधर, 90 दिनों तक बंदा बहादुर को काल कोठरी में बंद रखा गया और कठोर यातनाएं दी गईं। 9 जून 1716 को बंदा सिंह बहादुर की भी मौत का फरमान जारी हो गया। सजा से पहले एक और कोशिश की गई, बंदा बहादुर को शाही पोशाख पहनाकर कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर ले ज़ाया गया और दरगाह के चारों तरफ घुमाते हुए फिर पुछा गया, 'आखिरी बार पूछ रहा हूँ मौत या इस्लाम?'
गुरु गोबिंद के शिष्य बंदा बहादुर का शुरू से एक ही जवाब था, ना।।! तभी कोतवाल को क्रूरता सूझी, वो उनके चार साल के बेटे अजय सिंह को बंदा के सामने ले आया और बेटे की गर्दन पर तलवार रख दी। इसके बाद बंदा से फिर वही सवाल पुछा गया, ये सोचकर की बेटे की जान की खातिर बंदा बहादुर इस्लाम कबूल कर लेंगे। मगर, बंदा अब भी अडिग थे, उनका उत्तर ना ही था, तभी जल्लाद ने एक झटके में नन्हे अजय सिंह का सर कलम कर दिया। इसके बाद उस क्रूर जल्लाद ने शव से बच्चे का कलेजा निकाला और बंदा सिंह के मुंह में ठूंस दिया।
बंदा में मुंह में बच्चे का कलेजा होने के बावजूद वे अपनी आस्था पर अडिग रहे। उन्होंने इस्लाम या मौत में से मौत को चुना। फिर जल्लाद ने एक ख़ंजर से उनकी दोनों आंखें फोड़ दीं, गर्म सलाख़ों से उनके शरीर पर जगह-जगह जख्म दिए गए। मृत्यु से पहले वो तमाम यातनाएं दी गईं, जो दी जा सकती थी। शरीर से मांस नोचा गया और बार बार वही सवाल दोहराया गया, किन्तु बंदा तो प्राण उत्सर्ग करने।चल पड़े थे और आखिर में शरीर के टुकड़े काटकर अलग-अलग कर दिए गए।
बंदा की मौत के बाद देशभर में विद्रोह की चिंगारी तेज़ हो गई, मुगलों की क्रूरता को शिकस्त देने के लिए मराठाओं ने कमर कसी। बंदा बहादुर के बलिदान के बाद मराठाओं ने फ़र्रुख़सियर को जंग में हरा दिया। मुग़ल साम्राज्य इसके बाद जहां ढलता चला गया, वहीं महाराजा रणजीत सिंह ने काबुल, श्रीनगर और लाहौर पर क़ब्ज़ा कर उत्तर में एक विशाल सिख साम्राज्य बनाया और सिखों का परचम अफगानिस्तान तक लहराया।