नई दिल्ली : सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की, उसका प्राथमिक कर्तव्य अपने नागरिकों को सुरक्षित वातावरण प्रदान करना होता है। जहाँ आम जनता बिना किसी भय और रोकटोक के शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार आदि का लाभ उठा सके। किन्तु देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में दो बार ऐसा हुआ है, जब राज्य सरकार ने जनता की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ किया। वो भी ऐसे समय में जब राज्य दंगों की आग में झुलस रहा था। उस समय सरकार और राजनेता, लोगों का जीवन बचाने से अधिक अपना वोट बैंक बचाने में लगे हुए थे।
हालाँकि, सबसे बड़ी हैरानी की बात ये थी कि इस मामले पर मीडिया से लेकर विधानसभा-संसद कहीं बहस नहीं हुई, किसी ने कुछ कहा भी होगा, तो उसे दबा दिया गया। आज जब उन प्रभावित इलाकों की वापस जांच शुरू हुई है, तो पुराने तमाम कच्चे चिट्ठे निकलकर सामने आ रहे हैं। दरअसल, हम बात कर रहे हैं संभल की, जो कि एक तरह से हिन्दू विहीन हो चुका है, संभल में मुस्लिम आबादी लगभग 78% हो चुकी है। हालाँकि, आबादी बढ़ने या घटने के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन संभल में जो वजह सामने आई, उसने देशभर को हिलाकर रख दिया। संभल, हिन्दू समुदाय के लिए एक तीर्थक्षेत्र जितना महत्त्व रखता है। मान्यता है कि श्री हरि विष्णु के अंतिम अवतार कल्कि यहीं जन्म लेंगे। इतिहासकारों का मानना है कि, यहाँ पर सम्राट पृथ्वीराज सिंह चौहान ने भव्य हरिहर मंदिर का निर्माण करवाया था, जिसे बाद में बाबर के सेनापति मीर बेग ने मस्जिद में तब्दील कर दिया।
पुराने गजेटियर्स में संभल में हरिहर मंदिर का उल्लेख मिलता है, जो मस्जिद के स्थान पर प्राचीन मंदिर होने का सबूत हैं। यही नहीं, बाबरनामा में भी बाकायदा उल्लेख किया गया है कि, बाबर के आदेश पर ही मीर बेग ने संभल के हिंदू मंदिर को जामा मस्जिद में बदल दिया था। इस घटना को कई सदियां गुजर गईं, मुग़लों के बाद अंग्रेज़ भी शासन करके चले गए और देश 1947 में आज़ाद हो गया। लेकिन बाबर ने जो गुलामी का दाग संभल के माथे पर लगा दिया था, वो जस का तस रहा, ऊपर से आज़ादी के बाद शुरू हुई तुष्टिकरण की राजनीति ने देश के बहुसंख्यक समुदाय को अपना हक़ मांगने से ही रोक दिया। सालों बाद जब, बहुसंख्यक समुदाय को ऐसा महसूस हुआ कि ऐसी कोई सरकार आई है, जो उनके बारे में भी सोचती है, तो उन्होंने अपनी धरोहरों को पाने के लिए प्रयास प्रारम्भ किए, संभल ढाँचे का ASI सर्वे उसी का परिणाम था।
लेकिन, इस ASI सर्वे के दौरान संभल में हिंसा भड़क उठी, अल्पसंख्यक समुदाय सर्वे का विरोध करने लगा, शायद वे सच्चाई सामने नहीं आने देना चाहते थे। इस हिंसा में कई पुलिसकर्मी और ASI टीम के अधिकारी जख्मी हुए। किन्तु इस हिंसा के बाद हुई कार्रवाई में जो हकीकत सामने आई, उसे जानकर सबके होश उड़ गए। पूरे संभल में कई ऐसे प्राचीन मंदिर और कूप मिले, जो दबा दिए गए थे, उन्हें वीरान छोड़ दिया गया था और उसके आसपास अतिक्रमण कर लिया गया था। ये सब हुआ आज़ाद भारत में, जहाँ बहुसंख्यक आबादी की आस्था को रौंद दिया गया और उन्हें अपने ही घर-बार छोड़कर पलायन करने के लिए मजबूर कर दिया गया।
30 मार्च 1978 को संभल, जो तब मुरादाबाद जिले का हिस्सा था, सांप्रदायिक दंगों की आग में जल उठा। हिंदू आबादी पर हिंसक हमले किए गए, उनके घर जलाए गए और निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। ये घटनाएँ इतनी भयावह थीं कि इलाके से हिंदुओं का पूरी तरह पलायन हो गया। उस समय पुलिस ने 16 मुकदमे दर्ज किए थे, लेकिन इनमें से किसी भी मामले में दोषियों को सजा नहीं मिली। 1993 में समाजवादी पार्टी (सपा) की सरकार, जिसमें मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री थे, ने इन दंगों से जुड़े आठ मुकदमों को वापस लेने का निर्णय लिया। सूत्रों के अनुसार, यह फैसला सपा नेता आजम खान और पूर्व सांसद डॉ. शफीकुर्रहमान बर्क के दबाव में लिया गया था। उस समय न्याय विभाग के विशेष सचिव आर.डी. शुक्ला ने मुरादाबाद के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर मुकदमे वापस लेने के आदेश दिए थे।
इसका नतीजा यह हुआ कि दंगों के पीड़ितों को न्याय नहीं मिला। अधिकतर गवाह होस्टाइल हो गए, जबकि पीड़ित परिवार डर के कारण अन्य शहरों में पलायन कर गए। पुलिस और जांच एजेंसियों ने भी मामलों की फाइलों को ठंडे बस्ते में डाल दिया। संभल के पुराने हिस्से में आज भी उजड़े मंदिर, वीरान कुएँ और खंडहर बन चुके मकान उस नरसंहार की गवाही देते हैं। ये स्थल उन हिंदू परिवारों की याद दिलाते हैं, जिनके घर जलाए गए और जो खुद इस्लामिक कट्टरपंथ की हिंसा का शिकार बने।
हाल ही में मुरादाबाद प्रशासन ने इन मामलों की फाइलें खंगालनी शुरू की हैं। अब तक 10 मामलों की फाइलें बरामद हो चुकी हैं, जिनमें "राज्य बनाम रिजवान," "राज्य बनाम मुनाजिर," और "राज्य बनाम वाजिद" जैसे केस शामिल हैं। इन पर हत्या, डकैती, आगजनी, और सामूहिक हिंसा के तहत मामले दर्ज हुए थे। लेकिन जांच में खुलासा हुआ कि कई मामलों में अधिकारियों ने गवाही तक दर्ज नहीं की और सिर्फ एकतरफा बयानों के आधार पर केस बंद कर दिए। ये स्पष्ट तौर पर सरकार के दबाव के कारण था, वरना कोई अधिकारी अपने आप ऐसे जघन्य मामलों में केस बंद नहीं कर सकता।
इस पूरे मामले में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि जिन नेताओं ने दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने की जगह उन्हें बचाने का काम किया, वे आज भी खुद को "सेक्युलर" कहने से नहीं हिचकते। मुलायम सिंह यादव और उनकी सरकार ने वोट बैंक की राजनीति के तहत हिंदुओं के नरसंहार को दबा दिया और पीड़ितों को न्याय दिलाने की बजाय दोषियों का बचाव किया। अगर यह नरसंहार किसी और समुदाय से जुड़ा होता, तो क्या तत्कालीन सरकार का यही रवैया होता? क्या आज के सेक्युलर नेता तब भी चुप रहते? इन सवालों का जवाब आसान नहीं है, लेकिन यह जरूर दिखाता है कि कैसे हिंदू समुदाय को वोट बैंक की राजनीति में बार-बार निशाना बनाया गया।
अखिलेश ने तो आतंकियों के केस वापस ले लिए :मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव अपने पिता से इस मामले में दो कदम आगे निकले। मुलायम ने तो आज़म खान और बर्क के दबाव में आकर दंगाइयों के मुक़दमे वापस लिए थे, किन्तु अखिलेश ने तो सत्ता में आते ही देशभर की सुरक्षा को खतरे में डालते हुए आतंकियों के मुक़दमे वापस लेने वाली फाइल पर दस्तखत कर दिए। ये वर्ष था 2013, जब समाजवादी पार्टी (सपा) विधानसभा चुनाव जीतकर सत्ता पर काबिज ही हुई थी। उस समय अखिलेश यादव ने खुद हस्ताक्षर करते हुए 21 आतंकियों पर दर्ज 14 मुक़दमे वापस ले लिए थे।
दरअसल, मार्च 7, 2006 को वाराणसी के संकटमोचन मंदिर और कैंट रेलवे स्टेशन पर 10 सीरियल ब्लास्ट हुए थे, जिसमे लगभग 18 बेकसूरों की जान गई थी और सैकड़ों लोग जख्मी हुए थे। इसके अलावा लखनऊ, वाराणसी और फैजाबाद की कचहरियों में 23 नवंबर 2007 को सिलसिलेवार बम धमाके हुए थे, जिसमे कई लोगों की जान गई थी। पुलिस ने इस मामले में कार्रवाई करते हुए कुल 19 अपराधियों को गिरफ्तार किया था। लेकिन सत्ता में आने के बाद अखिलेश यादव ने फ़ौरन ही इन अपराधियों के मुक़दमे वापस लेने के आदेश पर दस्तखत कर दिए। ये मामला जब इलाहबाद हाई कोर्ट पहुंचा, तो अदालत ने अखिलेश सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था कि ''आज आप आतंकियों को छोड़ देंगे, तो क्या कल उनको पद्मभूषण से भी नवाज़ देंगे।''
कोर्ट ने कहा था कि, 'कौन आतंकी है और कौन नहीं? ये फैसला करना अदालत का काम है, सरकार का नहीं।' हाई कोर्ट ने अखिलेश सरकार से दो टूक कहा था कि आतंकवाद के मामलों में राज्य सरकार कोई फैसला नहीं ले सकती, ये केंद्र के तहत आने वाला अधिकार है। हालाँकि, फिर भी पुलिस और प्रशासन तो अखिलेश सरकार के अधीन ही था, जिसे आतंकियों के खिलाफ पैरवी करनी थी। यदि मजबूती से पैरवी की जाती, तो शायद सभी अपराधियों को सजा मिलती, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कई आरोपी सबूतों के अभाव में बरी हो गए, और 13 वर्षों तक लम्बे चले मुक़दमे के बाद इन हमलों के लिए मात्र दो अपराधियों को सजा मिली, कोर्ट ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई और बाकी सब बरी हो गए।
आज भी जब इन मामलों का जिक्र आता है, तो सवाल उठाते हैं कि किस तरह सपा सरकारों ने जनहित से ऊपर अपने वोट बैंक को रखा। जबकि उन धमाकों में मरने वाले लोग किसी भी समुदाय के हो सकते थे। लेकिन, हमलावर सभी एक ही समुदाय के थे, जो कि सपा का मुख्य वोट बैंक माने जाते हैं, इसलिए सत्ता में आते ही पार्टी ने उन्हें बचाने के लिए हर पैंतरे का इस्तेमाल किया। यदि अदालत जोर न डालती, तो हो सकता था कि उन दो आतंकियों को भी सजा न मिलती और वही आतंकी आगे जाकर और भी बेकसूरों की जान लेते।