22 दिसंबर 1964 की वो रात जिसने निगल ली हजारों मासूमों की जान

22 दिसंबर 1964 की रात तमिलनाडु के पम्बन ब्रिज पर धनुषकोडी तूफान के चलते एक पैसेंजर ट्रेन समुद्र में समा गई, जिसमें 250 से अधिक यात्री लापता हो गए। यह हादसा भारत के सबसे भयावह रेल हादसों में गिना जाता है, जिसने न सिर्फ यात्रियों की जान ली बल्कि धनुषकोडी शहर को भी तबाह कर दिया।

22 दिसंबर 1964 की वो रात जिसने निगल ली हजारों मासूमों की जान

1964 की वो मनहूस रात जिसने बर्बाद कर दिया लोगों का घर संसार

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Heighlights

  • धनुषकोडी चक्रवात और 22 दिसंबर 1964 की रात का इतिहास।
  • चक्रवात से खंडहर में तब्दील हो गया था धनुषकोडी शहर।
  • संचार की कमी से 1964 तबाह कई घर परिवार।

22 दिसंबर 1964 की रात समुद्र में एक अजीब सी हलचल थी, और बादलों के पीछे छुपा हुआ चाँद भी मानों आने वाली इस तबाही से डर गया हो, वहीं दूसरी ओर रामेश्वरम स्टेशन पर हलचल थी। जहां सभी यात्री अपनी अपनी सीटों पर बैठ चुके थे कोई अपने परिवार से मिलने की ख़ुशी में था, तो कोई रामेश्वरम मंदिर में दर्शन के बाद संतुष्टि के भाव से वापस लौट रहा है, लेकिन किसी को इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था की वे एक ऐसे सफर पर निकल चुके है। जिससे वापस आना शायद ही नामुमकिन हो, इधर ट्रैन की सीटी बजी और उधर इंजन धीरे धीरे पटरी पर चलना शुरू हो गया, डिब्बों की खिड़की से बाहर झांखने वाले यात्रियों को समुद्र का अनंत विस्तार दिखाई दे रहा था। लेकिन उस रात समुद्र में कुछ तो अजीब था, लहरे मानों जैसे किसी अदृश्य शक्ति के काबू से खींची चली आ रही थी, हवाएं किसी अनसुनी चीख की तरह गूंज रहीं थी। वहीं दूर पम्बन ब्रिज अंधेरे में चुपचाप खड़ा था, मानो जैसे किसी अनहोनी का इन्तजार कर रहा है, रात तकरीबन 11 बजकर 55 मिनिट पर मौसम विभाग की ओर से एक चेतवानी आई, और ये चेतावनी थी धनुषकोडी चक्रवात तूफ़ान की, जो कि रामेश्वरम की तरह तेजी से बढ़ रहा था। वर्ष 1964 में संचार के साधन इतने अच्छे नहीं थे कि ये संदेश ट्रैन तक सही समय से पहुंच सके, और दूसरी तरफ ट्रैन भी समुद्र पर बने पम्बन ब्रिज पर प्रवेश कर चुकी थी। आखिर उस रात हुआ क्या आगे जानते है...

एक सामान्य रात जो बन गई इतिहास की सबसे काली रात

22 दिसंबर 1964 की रात समुद्र के ऊपर लगभग 2KM दूर तक फैला पम्बन ब्रिज भारत का पहला समुद्री पुल जो रामेश्वरम को मुख्य भूमि से जोड़ता था, वह अंधेरे में किसी प्राचीन योद्धा की तरह खड़ा रहता था, इतना ही नहीं ये ब्रिज हजारों यात्राओं का साक्षी था, लेकिन इस रात इसकी परीक्षा होने वाली थी, एक ऐसी परीक्षा जिसमे न कोई जीत सकता था और न उस पर गुजरने वाली ट्रैन रात तकरीबन 11 बजकर 55 मिनिट पर मौसम विभाग ने चेतावनी दी, वहीं धनुषकोडी तूफ़ान अपनी चरम सीमा पर था, एवं कुछ ही पलों में भारी तबाही मचाने वाला था, रात ठीक 12:05 मिनिट पर ट्रैन अपने निर्धारित समय पर पम्बन ब्रिज पर आ चुकी थी, चारो ओर केवल पानी ही पानी था, हलकी-हलकी बारिश शुरू हो चुकी थी जिसे यात्रियों ने बहुत ही सामन्य माना, लेकिन किसी ने ये सोचा भी नहीं था कि ये यात्रा उनकी अंतिम यात्रा बन जाएगा।  रात 12 बजकर 10 मिनिट पर समुद्र के पानी में उथल-पुथल बढ़ गयी, हवाएं 150KM प्रतिघंटे की रफ़्तार से चलने लगी, अब लहरें भी अपनी सीमा को तोड़ने लगी थी, पुल की लोहे की संरचनाएं भी चरमराने लगी। 

ट्रेन के डिब्बों की चीखें और यात्रियों की बेबसी

ट्रैन में मौजूद यात्रियों को भी कंपन महसूस तो कुछ ने खिड़कियों से बाहर की ओर देखा समुद्र की लहरें अचानक बहुत ऊंची हो गई थी। मनो किसी चीज की तलाश में हो रात 12 बजकर 15 मिनिट पर एक तेज गर्जना समुद्र से एक विशाल लहर उठी, ये लहर इतनी ऊंची थी जितनी आज से पहले किसी ने भी नहीं देखी थी। पूरी ट्रैन हलके हलके हिलने लगी थी यात्री में डर और खौफ का माहौल हो गया किसी ने सीट को पकड़ा, कोई अपने बच्चों को बाँहों में जकड़ रहा था तो कोई भगवान का नाम ले रहा था।  लेकिन अब उनके पास कोई भी रास्ता नहीं था, वहीं एक जोरदार धमाके साथ ब्रिज के पिलर चरमराने लगे तभी इंजन और पहला डिब्बा ब्रिज से नीच गिरा, और इसी तरह से एक के बाद एक सारे डिब्बों के साथ ट्रैन समुद्र में समाती चली गई, यात्रियों की चीख हवा में घुल, तो वहीं कुछ लोगों ने अपनी जान बचाने के लिए खिड़कियों से बाहर कूदने का प्रयास किया लेकिन समुद्र की इन भड़कती लहरों ने किसी को कोई मौका ही नहीं दिया। कुछ ही पलों में जहां ट्रैन थी वहां केवल उफान मारता हुआ समुद्र था। मानों उसने सब कुछ निगल लिया हो। 

जिस ट्रैन में कुछ समय पहले हंसी खुसी का माहौल था, अब वहां केवल चीखें थी। उस समय अंधेरा इतना घना था कि कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था, तेज हवाएं और समुद्र की उफनती लहरें जैसे अपने शिकार की तलाश में थी, ट्रैन के भीतर का मंजर दिल दहला देने वाला था। अब तक ब्रिज के कई हिस्से टूट गए थे तो वहीं कुछ यात्रियों ने उन टूटे हुए लोहे के टुकड़ों को पकड़कर खुद को बचाने का प्रयास किया लेकिन मूसलाधार बारिश और बेकाबू लहरों ने बचाव की सारी उम्मीदें तोड़ दी। चारों तरफ चींख-पुकार थी लेकिन समुद्र की गरज उन्हें भी निगल रही थी। कुछ ही पलों में यात्रियों से भरी हुई ट्रैन समुद्र की गहराइयों में गुम हो गई। सुबह होते ही सब शांत हो चुका था जब रेस्क्यू टीम पहुंची तो उन्हें वहां तैरते हुए मलवे और यात्रियों के शव मिले। क्योंकि समुद्र ने सब भी नील लिया था, ट्रैन यात्री और उनकी कहानियां सब हमेशा के लिए इतिहास बन चुके थे। एक महिला जिसकी गोद में 6 माह का मासूम बच्चा था अपनी सीट से उठकर खिड़की के पास आए ट्रैन जोरों से हिल रही थी। पानी भी तेजी से अंदर आ रहा था। उसने अपने बच्चे को सीने से लगा लिया अचानक एक झटका लगा और डिब्बा पूरी तरह से पानी चला गया दो भाई जो अपने दादा दादी से मिलने के लिए रामेश्वरम मिलने गए थे, उन्होंने लौटते समय दोनों ने खिड़की के पास वाली सीट ली, जब ये हादसा हुआ कृष्णा ने वेंकटेश का हाथ पकड़ लिया लेकिन तेज पानी के बाहव ने उन्हें अलग कर दिया। वेंकटेश का शव दो दिनों के बाद समुद्र के किनारे मिला। लेकिन उसका भाई कृष्णा कभी नहीं मिला, और आज तक ये पता नहीं चल सका कि क्या उसकी भी मौत हो गई, या समुद्र ने उसे कहीं और बहा दिया। 

हादसे से पूर्व ट्रैन से उतर गया था एक यात्री

लेकिन उस रात एक यात्री पम्बन ब्रिज से पहले आए स्टेशन रामनाथपुरम पर ही उतर गया, उसे देर रात घर पहुंचना था, उसे जब इस हादसे की खबर मिली तो वह हैरान रह गया। यदि वह उस वक़्त ट्रैन में होता तो हादसे का शिकार हो गया होता। उस रात सिर्फ ट्रैन ही नहीं बल्कि एक पूरा शहर भी तबाह हो गया, धनुषकोडी को कभी रामेश्वरम के पास एक तीर्थ स्थल हुआ करता था, अब सिर्फ खंडहर बन चुका था, जैसे ही ट्रैन समुद्र में समाई, वैसे ही चक्रवात ने धनुषकोडी पर भी अपना कहर बरसा दिया 200KM प्रतिघंटे की रफ़्तार से चल रही हवाओं ने मकानों को उखाड़ फेंका। मंदिरों को तोड़ दिया, और रेलवे स्टेशन को मिट्टी में मिला दिया। उस रात पूरा शहर समुद्र में समां चुका था। जो लोग उस रात अपने घरों में सोए हुए थे वह कभी भी जाग नहीं पाए। सड़कें, घर, दुकानें सब कुछ पानी में डूब गया था, इतना ही नहीं इस चक्रवात ने अनगिनत लोगों की जान ली। सुबह होते ही हादसे खबर हर तरफ फ़ैल गई। नौसेना और बचाव दल तुरंत ही रेस्क्यू के लिए पहुंचे।

जहां उन्हें टूटे से घर, तित्तर-बित्तर पड़े हुए शव, पानी में बहे हुए लोगों के सामान ही मिले। आखिर वो ट्रैन कहा गई ये सवाल आज भी लोगों के मन में उठता है? समुद्र ने सबकुछ निगल लिया था। बचाव दल ने कई शव निकाले लेकिन 250 से अधिक यात्री हमेशा के लिए लापता हो गए। कई शव कभी नहीं मिले तो वहीं कुछ लोगों का मानना है कि वह सभी शव समुद्र में ही दफ़न हो तो कुछ लोगों का कहना है कि समुद्र ने उन्हें अपने पास रख लिया इस हादसे के बाद सरकार ने 1974 में पम्बन ब्रिज को फिर से बनाया, नया ब्रिज आधुनिक तकनीक से बना जो समुद्री तूफानों को झेल सकता था, मगर उस हादसे की कहानी आज भी समुद्र की लहरों के साथ गूंजती है। जब भी यहाँ से कोई ट्राई गुजरती है तो लोगों की ऑंखें नम हो जाती है, अब सवाल ये है कि मौसम विभाग की चेतावनी ट्रैन तक सही समय पर पहुंच जाती तो क्या ये हादसा टल सकता था। यदि संचार व्यवस्था अच्छी होती तो क्या धनुषकोडी को बचाया जा सकता था?  

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