
नई दिल्ली : भारतीय अर्थव्यवस्था को स्थिरता देने वाले बुद्धिजीवियों में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का नाम बेहद आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है। अविभाजित भारत में जन्मे डॉ मनमोहन अपने शांत व्यक्तित्व और मितभाषी होने के लिए जाने जाते थे, और अक्सर खुद पर लगने वाले आरोपों को मुस्कुराकर टाल दिया करते थे. इसी कारण उन आरोपों को और हवा मिलती रही, और राजनितिक गलियारों में किस्से कहानियां घूमते रहे. ऐसा ही एक किस्सा है डॉ मनमोहन सिंह और राहुल गांधी का..
उस समय राहुल गांधी भारतीय राजनीति में नौसिखिए ही थे. वे अपनी माँ और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में उपाध्यक्ष का पद संभालते हुए पार्टी का संचालन सीख रहे थे. गांधी परिवार की पारंपरिक सीट अमेठी से राहुल गांधी दूसरी बार चुनकर पहुंचे थे और इसी बीच केंद्र की UPA सरकार ने 2013 में दागी नेताओं को बचाने के लिए एक अध्यादेश पेश किया. जिसे मनमोहन कैबिनेट ने सर्व सम्मति से स्वीकृति दे दी थी. ये मनमोहन सरकार का दूसरा कार्यकाल था और उसका भी अंतिम वर्ष चल रहा था. इस साल UPA सरकार बड़े बड़े फैसले ले रही थी, जैसे सत्ता जाने से पहले तमाम दांव खेल लेना चाहती हो.
इसी साल कांग्रेस सरकार ने वक्फ को असीमित शक्तियां देकर उसे सुप्रीम कोर्ट से भी ऊपर कर दिया था और लगभग 123 ऐतिहासिक इमारतें वक्फ को दे दी थी. इसी दौरान एक अध्यादेश लाया गया था,
दरअसल, उस अध्यादेश की जड़ में सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला था, जिसमे अदालत ने कहा था कि जो भी सांसद-विधायक या जनप्रतिनिधि दो वर्षों या उससे अधिक अवधि का दोषी पाया जाएगा, उसकी योग्यता तत्काल प्रभाव से समाप्त हो जाएगी और वो अगला चुनाव भी नहीं लड़ सकेंगे. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से राजनितिक खलबली तो मचनी ही थी, कई दल इसके विरोध में उतर आए और केंद्र में गठबंधन की सरकार चला रही कांग्रेस पर इसका उपाय खोजने के लिए दबाव बनाने लगे.
केंद्र की गठबंधन सरकार पर इन 9 सालों में घोटालों के कई गंभीर आरोप लगे थे. जिसमे कोयला घोटाला, 2G स्पेक्ट्रम घोटाला, हेलीकाप्टर घोटाला, टाटा ट्रक घोटाला, कामनवेल्थ गेम्स घोटाला, कैश फॉर वोट घोटाला, आदर्श घोटाला, IPL घोटाला जैसे कई घोटाले शामिल थे. इनमे शामिल अधिकतर लोग, कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में शामिल थे, जिन पर गिरफ़्तारी की तलवार भी लटक रही थी. ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट का ये आदेश कई राजनेताओं के करियर खा जाने वाला था, जिसे पलटने के लिए मनमोहन सरकार द्वारा एक बिल संसद में पेश किया गया, ताकि दोषी ठहराए जाने के बाद भी सांसदों-विधायकों की गद्दी न जाए और वे चुनाव लड़ते रहें.
हमारे देश में राजनेता जेल से चुनाव भी लड़ सकते हैं और चुनाव जीत भी सकते हैं, और जनता के लिए बनाए जाने वाले कानूनों पर संसद-वधानसभा में मतदान भी कर सकते हैं, लेकिन जेल में कैद एक सामान्य कैदी वोट नहीं डाल सकता. दिल्ली दंगों के ताहिर हुसैन से लेकर, आतंकवाद के आरोपी अब्दुल रशीद और खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह तक इसके तमाम उदाहरण भारतीय राजनीति में मौजूद हैं. इसी छूट को बरक़रार रखने के लिए मनमोहन सरकार द्वारा वो बिल लाया गया था, लोकसभा में तो बिल पारित हो गया, लेकिन राज्यसभा में आने के बाद इसे स्टैंडिंग कमिटी के पास भेज दिया गया. कानून बनने में देर हो रही थी, और सरकार पर दबाव बढ़ता जा रहा था.
“कोरा बकवास, इसे फाड़ कर फेंक देना चाहिये”: राहुल गांधी
— Surya Pratap Singh IAS Rtd. (@suryapsingh_IAS) December 27, 2024
2013 में राहुल गांधी ने मनमोहन सिंह सरकार का एक अध्यादेश प्रेस के सामने फाड़ा था, ‘कंप्लीट नॉनसेंस’ बताया था।
इसके चलते मनमोहन सिंह ने PM पद से इस्तीफा देने तक का मन बना लिया था।
1991 में उदारीकरण-आर्थिक नीति के जनक… pic.twitter.com/q5bbqguEWQ
इसी बीच मनमोहन सरकार ने एक अध्यादेश लाने का फैसला किया, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए दागी नेताओं का बचाव करता था. भाजपा और वामपंथी दलों ने इसका पुरजोर विरोध किया और अध्यादेश को भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाला बताया. कांग्रेस सरकार पर यहाँ तक आरोप लगे कि वो चारा घोटाले के आरोपी लालू प्रसाद यादव को बचाने के लिए ये अध्यादेश लेकर आई है. RJD के साथ-साथ समाजवादी पार्टी (सपा) भी इस अध्यादेश के पक्ष में थी, और अध्यादेश पारित भी हो गया. लेकिन इसके विरोध में आ गए राहुल गांधी, जो 2013 की शुरुआत में ही कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने थे.
राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से एक प्रेस कांफ्रेंस करते हुए अपनी ही सरकार पर जमकर हमला बोल दिया. उन्होंने कहा था कि, 'ये अध्यादेश पूरी तरह से बकवास है और इसे फाड़ कर फेंक देना चाहिए.' उस वक्त राहुल गांधी ने भ्रष्टाचार से लड़ने की बात कही थी, जब उनकी सरकार खुद कई घोटालों में घिरी हुई थी. राहुल ने प्रेस वार्ता में कहा था कि, ''हमें यदि भ्रष्टाचार से लड़ना है, तो इस तरह से समझौते करना बंद कर देना चाहिए. मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है, हमारी सरकार ने जो (अध्यादेश) किया है, वो गलत है.''
राहुल गांधी ने जिस समय ये बयान दिया, उस वक़्त प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह अमेरिका दौरे पर थे, खबरों के माध्यम से उन तक भी ये समाचार पंहुचा और देशभर में भी राजनितिक खलबली मच गई कि राहुल गांधी ने अपनी ही सरकार के अध्यादेश का विरोध करके प्रधानमंत्री का अपमान किया. हालाँकि, राहुल ने सिर्फ अपनी बात रखी थी, फिर भी पार्टी के कई दिग्गजों का कहना था कि राहुल को अपनी बात पार्टी के भीतर रखनी चाहिए थी.
इस घटना के बाद राजनीतिक गलियारों में कयास लगाए जाने लगे थे कि डॉ. मनमोहन सिंह इस्तीफा दे सकते हैं. रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस अपमानजनक स्थिति के बाद डॉ. सिंह ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मुलाकात भी की थी और अपने पद से इस्तीफा देने का इरादा जाहिर किया था. हालांकि, कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं और सोनिया गांधी के हस्तक्षेप के बाद उन्होंने अपना फैसला बदल लिया. मनमोहन सिंह के लिए यह क्षण बेहद चुनौतीपूर्ण था. एक तरफ वे अपनी सरकार और उसकी नीतियों के साथ खड़े थे, तो दूसरी ओर पार्टी के भीतर से ही उनके फैसलों पर सवाल उठ रहे थे और उन पर अध्यादेश वापस लेने का दबाव बनाया जा रहा था.
पूरा राजनीतिक खेमा दो भागों में बंट गया था. समाजवादी पार्टी (सपा) नेता नरेश अग्रवाल ने एक बयान में कहा था कि 'यदि सरकार ने अध्यादेश वापस लिया, तो इससे यही सन्देश जाएगा कि प्रधानमंत्री (मनमोहन सिंह) कमज़ोर होता है और व्यक्ति (राहुल गांधी) बड़ा.' वहीं, भाजपा ने कहा था कि, 'यदि सरकार अध्यादेश वापस लेती है, तो ये देश और जनता की जीत होगी.' ये पूरा मुद्दा राजनीति को अपराधमुक्त रखने से जुड़ा था, एक खेमा चाहता था कि दोषी ठहराए जाने के बाद भी सांसद-विधायक बने रहने और चुनाव लड़ने की छूट मिले, तो दूसरा इसके खिलाफ था. शायद ये पहली बार था, जब राहुल गांधी और भाजपा एक ही पटरी पर सवार नज़र आ रहे थे, दोनों इस अध्यादेश का विरोध कर रहे थे.
इधर, कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व राहुल गांधी और मनमोहन सिंह के बीच आई दरार को भरने में लगा हुआ था. तमाम मध्यस्थता के बाद डॉ मनमोहन ने राहुल गाँधी के साथ एक गंभीर बैठक की, जिसका निष्कर्ष ये निकला कि सरकार को अध्यादेश वापस ले लेना चाहिए. इस बैठक के अगले ही दिन मनमोहन सरकार ने उस अध्यादेश को वापस ले लिया. हालाँकि, डॉ मनमोहन ने इस मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से कभी बयान नहीं दिया, पर उनसे जुड़े कुछ लोग जैसे उनके सलाहकार संजय बारू कहते हैं कि इस बात से उन्हें ठेस जरूर पहुंची थी. बारू ने तो यहाँ तक कहा था कि राहुल की इस हरकत के बाद डॉ मनमोहन को इस्तीफा दे देना चाहिए.
हालाँकि, राहुल गांधी जब इस अध्यादेश का विरोध कर रहे थे, तब शायद वे नहीं जानते थे कि लगभग 10 वर्षों बाद यही अध्यादेश उनका मददगार बन सकता है. दरअसल, मोदी सरनेम मामले में जब गुजरात हाई कोर्ट ने राहुल गांधी को दोषी करार देते हुए 2 साल जेल की सजा सुनाई थी, तो नियमों के मुताबिक राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द हो गई थी और वे अयोग्य घोषित कर दिए गए थे.
उस समय मनमोहन सरकार के इस अध्यादेश की काफी चर्चा हुई थी, जिसका राहुल ने खुद विरोध किया था. यदि वो कानून बन गया होता, तो राहुल की सदस्यता नहीं जाती. हालाँकि, बाद में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए कांग्रेस नेता की सांसदी बहाल कर दी थी.