किसे जिताने के लिए की गई थी आज़ाद भारत की पहली बूथ कैप्चरिंग ?

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लेकर एक बड़ा खुलासा हुआ है। उत्तर प्रदेश के पूर्व सुचना निदेशक शम्भुनाथ टंडन ने आरोप लगाया है कि नेहरू के आदेश पर आज़ाद भारत के पहले ही लोकसभा चुनाव में बूथ कैप्चरिंग की गई थी और कांग्रेस उम्मीदवारों को जिताया गया था।

किसे जिताने के लिए की गई थी आज़ाद भारत की पहली बूथ कैप्चरिंग ?

मौलाना अबुल कलम आज़ाद को जिताने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने की बूथ कैप्चरिंग?

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Highlights

  • आज़ाद भारत की पहली बूथ कैप्चरिंग।
  • नेहरू ने धोखे से मौलाना आज़ाद को जिताया चुनाव।
  • नेहरू पर शंभुनाथ टंडन के गंभीर आरोप।

नई दिल्ली : चुनाव में धांधली और EVM हैक के आरोप भारतीय राजनीति में अक्सर लगते रहते हैं। जब भी भाजपा या उसका गठबंधन NDA चुनाव जीतता है, तब विरोधियों का पहला आरोप यही होता है। हालाँकि, चुनाव आयोग ने 3 जून 2017 को ही सभी पार्टियों को आमंत्रित किया था कि वे आएं और EVM को हैक करके दिखाएं, लेकिन आरोप लगाने वाले कोई दल या नेता आयोग की चुनौती स्वीकार करने नहीं गए। लेकिन, EVM के पहले बूथ कैप्चरिंग जरूर होती है, जिसको लेकर अब सनसनीखेज खुलासा हुआ है। 

ये खुलासा किया है, 50 के दशक में उत्तर प्रदेश के सूचना निदेशक (Director of Information) रहे शम्भुनाथ टंडन ने। टंडन ने देश के प्रथम लोकसभा चुनाव को लेकर एक लेख लिखा है, जिसका शीर्षक है,  "जब विशन सेठ ने मौलाना आजाद को धुल चटाई थी, भारतीय इतिहास की एक अनजान घटना।'' उल्लेखनीय है कि, मौलाना आज़ाद को पंडित नेहरू ने अपनी सरकार में शिक्षा मंत्रालय का जिम्मा सौंपा था और इस तरह वे देश के प्रथम शिक्षा मंत्री बने थे। हालाँकि, ये भी एक तथ्य है कि, खुद मौलाना आज़ाद की कोई स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी। उन्होंने किसी स्कूल-कॉलेज में कभी दाखिला नहीं लिया था, उनकी शिक्षा मौलानाओं द्वारा और घर या मस्जिद के अंदर ही हुई थी। जब देश आज़ाद होकर नवनिर्माण की तरफ बढ़ ही रहा था, उस वक़्त 11 वर्षों तक मौलाना आज़ाद देश के शिक्षा मंत्री बने रहे। 1958 में मौलाना के देहांत के बाद ही देश को नया शिक्षा मंत्री मिला। 

देश के पूर्व CBI प्रमुख नागेश्वर राव ने भी मौलाना आज़ाद और उनके बाद शिक्षा मंत्री बने हुमायूं कबीर, एमसी चागला और फखरुद्दीन अली अहमद – 4 साल (1963-67) और नुरुल हसन- 5 साल (1972-77) का जिक्र करते हुए आरोप लगाया था कि, इन शिक्षा मंत्रियों ने हिन्दुओं और हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने का काम किया। नागेश्वर राव ने ट्वीट करते हुए बताया था कि, हिंदू सभ्यता को इतिहास के कूड़ेदान में डालने का एक संगठित प्रयास चल रहा है। जिसमे हिंदुओं को उनके इतिहास के ज्ञान से वंचित करने और हिंदू धर्म को अंधविश्वासों का एक संग्रह बताकर बदनाम करने की एक सोची समझी कोशिश है। उन्होंने यह भी कहा कि शिक्षा प्रणाली का अब्राहमीकरण हो चुका है और हिंदुओं को उनकी पहचान के बारे में शर्मिंदा करने की कोशिश की गई है। उन्होंने आशंका जताई थी कि, अगर इस तरह हिंदू धर्म की एकता खत्म हो जाती है, तो हिंदू समाज खत्म हो जाएगा।

बाबर के समय अफगानिस्तान से भारत आया था मौलाना का परिवार :

मौलाना आज़ाद की जीवनी के अनुसार, उनका जन्म एक इस्लामी उलेमा के परिवार में हुआ था जो मुगल बादशाह बाबर के शासनकाल के दौरान अफगानिस्तान के हेरात से भारत आए थे।  उनके पिता मौलाना खैरुद्दीन 1857 में सऊदी अरब के मक्का गए थे और मक्का-मदीना के इस्लामी जानकारों के साथ कई साल बिताने के बाद 1898 में कोलकाता, भारत लौट आए थे। इसके बाद वे इस्लाम का प्रचार करने लगे और मस्जिदों और मदरसों में डिस्लामि उपदेश देने लगे। इसका काफी प्रभाव मौलाना आज़ाद पर भी पड़ा और इस्लामी शिक्षा की तरफ उनका झुकाव बढ़ने लगा, जो अंत तक रहा। मौलाना खैरुद्दीन चाहते थे कि उनका पुत्र अबुल कलाम, पीर (इस्लामी संत) बने, लेकिन नेहरू जी ने उन्हें देश का शिक्षा मंत्रालय सौंप दिया।   

उनके परिवार की दृढ़ इस्लामी मान्यताओं को देखते हुए, यह समझना मुश्किल नहीं है कि शिक्षा मंत्री बनने के बाद भी, मौलाना आज़ाद ने कथित तौर पर मुगलों की क्रूरताओं को छिपाकर उनका महिमामंडन करने की कोशिश क्यों की ? क्यों टीपू सुल्तान और अलाउद्दीन खिलजी जैसे अत्याचारी शासकों की क्रूरता छात्रों के सामने नहीं रखी गई? क्यों भारत की स्कूली पाठ्यपुस्तकों में अकबर 'महान' पढ़ाया जाता है और सम्राट पोरस और बप्पा रावल की वीरतापूर्ण गाथाएँ क्यों भुला दी जाती हैं ? आज भी अगर इन पाठ्यक्रमों में बदलाव करने की कोशिश होती है, तो  'शिक्षा का भगवाकरण' कहकर उसका विरोध शुरू कर दिया जाता है। किन्तु इतनी सदियों तक शिक्षा का इस्लामीकरण हुआ, क्या उसे सुधारने की आवश्यकता नहीं है ? 

मौलाना आज़ाद को जीताने के लिए नेहरू ने की धांधली ?

शंभुनाथ टंडन अपने लेख में बताते हैं कि, जवाहर लाल नेहरु देश मे हुए प्रथम आम चुनाव मे यूपी की रामपुर सीट से पराजित घोषित हो चुके कांग्रेसी उम्मीदवार मौलाना अबुल कलम आज़ाद को किसी भी हाल में चुनाव जिताने के आदेश दिये थे। उनके आदेश पर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सीएम पंडित गोविन्द वल्लभ पन्त ने रामपुर के जिलाधिकारी पर घोषित हो चुके नतीजों को बदलने का दबाव बनाया और फिर प्रशासन ने जीते हुए उम्मीदवार विशन चन्द्र सेठ की मतपेटी के वोट मौलाना अबुल के पेटी के डलवाकर दुबारा मतगणना करवाई, और इस धोखे से मौलाना अबुल को चुनाव जीताया गया।

टंडन स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि, भारत मे नेहरु ही बूथ कैप्चरिंग के पहले मास्टर माइंड थे। उस ज़माने मे भी बूथ पर कब्जा करके नतीजे बदल दिये जाते थे और देश के प्रथम लोकसभा चुनाव मे सिर्फ यूपी मे ही कांग्रेस के 12 हारे हुए उम्मीदवारों को इसी तरह चुनाव में विजयी बनाया गया। दरअसल, देश के विभाजन के बाद जनता में कांग्रेस और खासकर नेहरु के प्रति बहुत गुस्सा था, किन्तु चूँकि नेहरु के हाथ मे अंतरिम सरकार की कमान थी, इसलिए उन्होंने पूरी सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करके कांग्रेस उम्मीदवारों को चुनाव जितवाया, ताकि वे फिर गद्दी पर बैठ सकें। 

टंडन बताते हैं कि, विभाजन और हिन्दू-सिखों के नरसंहार के लिए हिंदू महासभा ने नेहरु और गाँधी की तुष्टीकरण की नीति को जिम्मेदार मानते हुए देश में भारी आन्दोलन चलाया था, और जनता में नेहरु के प्रति बहुत गुस्सा भर गया था। इस स्थिति में हिंदू महासभा ने कांग्रेस के दिग्गज नेताओ के खिलाफ अपने बड़े नेताओं मैदान में उतारने निर्णय किया था। इसी की तर्ज पर नेहरु के खिलाफ फूलपुर से संत प्रभुदत्त ब्रम्हचारी और मौलाना आज़ाद के खिलाफ रामपुर से भईया विशन चन्द्र सेठ को लडाया गया। टंडन के अनुसार, नेहरु खुद भी अंतिम राउंड में धोखे से बढ़ाए गए 2000 वोटों से जीते थे। 

इस चुनाव में रामपुर में सेठ विशन चन्द्र के पक्ष मे भारी मतदान हुआ था और मतगणना के पश्चात प्रशासन ने बकायदा लाउडस्पीकरों से सेठ विशन चंद को दस हज़ार वोट से विजयी भी घोषित कर दिया था। जिसके बाद रामपुर मे हिंदू महासभा के कार्यकताओं ने विशाल विजयी जुलुस भी निकाला। लेकिन, जैसे ही ये खबर वायरलेस से पहले लखनऊ और फिर दिल्ली पहुंची, तो मौलाना आज़ाद की करारी हार की खबर से नेहरु तिलमिला उठे। उन्होंने तुरंत यूपी के तत्कालीन सीएम पं गोविन्द वल्लभ पन्त को चेतावनी भरा संदेश दिया की मै मौलाना की शिकस्त को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नही कर सकता, यदि मौलाना को नही जीता सकते, तो आप शाम तक अपना इस्तीफा तैयार रखिए।

इसके बाद सीएम पन्त ने आनन फानन में ततकालीन सुचना निदेशक यानी शम्भूनाथ टंडन को बुलाया और उन्हें रामपुर के जिलाधिकारी से सम्पर्क करके किसी भी सूरत में मौलाना अबुल को जिताने का फरमान सुना दिया। हालाँकि, टंडन के तर्क दिया कि सर इससे दंगे भी भड़क सकते हैं, क्योंकि उस समय हिन्दू महासभा के कार्यकर्ता जीत का जश्न मनाना शुरू कर चुके थे, और विजयी जुलुस निकल रहा था। लेकिन, टंडन की बात पर पन्त ने कहा की देश जाये भाड़ में, नेहरु जी का हुक्म है। ये बाद खुद टंडन ने अपने लेख में लिखी है। इसके बाद रामपुर के जिलाधिकारी को वायरलेस पर मौलाना अबुल को जिताने के आदेश दे दिए गए। फिर रामपुर के सीटी कोतवाल ने विजयी उम्मीदवार सेठ विशनचन्द्र के पास गया और कहा कि आपको जिलाधिकारी साहब बुला रहे है, जबकि वो लोगों की बधाईयाँ स्वीकार कर रहे थे।

जैसे ही जिलाधिकारी ने सेठ विशनचंद्र से कहा कि मतगणना दुबारा होगी, तो सेठ विशनचन्द्र ने इसका पुरजोर विरोध किया और कहा कि मेरे सभी कार्यकर्ता जुलुस में गए हुए हैं और ऐसे मे आप बिना मतगणना एजेंट के दुबारा कैसे मतगणना कर सकते है ? लेकिन उनकी एक नही सुनी गई और जिलाधिकारी के साफ साफ कहा कि सेठ जी हम अपनी नौकरी बचाने के लिए आपकी बलि ले रहे हैं, क्योकि ये पीएम नेहरु का आदेश है। शम्भुनाथ टंडन आगे बताते हैं कि चूँकि उन दिनों उम्मीदवारों के नामो की अलग अलग पेटियां हुआ करती थी और मतपत्र पर बगैर कोई निशान लगाये अलग अलग पेटियों मे डाले जाते थे, इसलिए ये बहुत आसान था कि एक प्रत्याशी के वोट दूसरे की पेटी मे मिला दिये जाएं। 

देश में हुए प्रथम लोकसभा चुनाव की इसी खामी का फायदा उठाकर पीएम नेहरु ने इस देश की सत्ता पर कब्जा किया और आज उनके वंशज EVM हैक और चुनाव में धांधली के आरोप लगाते हैं। जबकि न वे चुनाव आयोग के बुलावे पर गए और न ही सुप्रीम कोर्ट में EVM के खिलाफ कुछ सिद्ध कर सके।

क्या नेहरू पीएम पद के लिए देश की पहली पसंद थे?

हालाँकि, गौर करने वाली बात ये भी है कि नेहरू खुद भी देश की पसंद से प्रधानमंत्री नहीं बने थे। 1946 में जब अंग्रेज़ों ने देश छोड़ने का मन बनाया था, तब उन्होंने एक कैबिनेट मिशन प्लान पेश किया था, जिसमे एक प्रावधान था कि कांग्रेस का अध्यक्ष ही देश का प्रथम पीएम बनेगा। उस समय देशभर की कांग्रेस कमिटियों से अध्यक्ष पद के लिए नामों के सुझाव मांगे गए, सबसे अधिक नाम सरदार वल्लभ भाई पटेल का सुझाया गया। पटेल को 14 कमिटियों के वोट मिले थे, जबकि नेहरू को सिर्फ एक। इसके बावजूद महात्मा गांधी ने नेहरू की महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए पटेल पर दबाव डालकर उन्हें नाम वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया और इस तरह बिना पसंद के भी नेहरू अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री बने, ब्रिटेन की महारानी की शपथ लेकर। इसके बाद जब संविधान बना और 1951-52 में पहले लोकसभा चुनाव हुए, तब तक पूरी ताकत पंडित नेहरू के हाथ में आ चुकी थी और उसका इस्तेमाल उन्होंने किस तरह किया, ये बात शंभुनाथ टंडन बता ही चुके हैं।

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