
नई दिल्ली: भारत में सांसदों-विधायकों को खरीदने और उनके बलबूते पर सरकार बनाने और गिराने का खेल बहुत पुराना है। हालाँकि, पहले सोशल मीडिया और इंटरनेट न होने के कारण अधिकतर मामले दब जाते थे, किन्तु आज के दौर में सभी चीज़ें जनता के सामने हैं। मौजूदा सत्ताधारी पार्टी भाजपा ने इन आरोपों को सबसे अधिक झेला है, कि उसने सरकार बनाने के लिए निर्वाचित सदस्यों की खरीद-फरोख्त की है, हालाँकि, ये आरोप कभी संसद या अदालत में साबित नहीं हुए, किन्तु इसने पार्टी की छवि को अवश्य ठेस पहुंचाई है। लेकिन एक मामला ऐसा भी है, जहाँ सांसदों को पैसे देकर खरीदने का अपराध बाकायदा संसद में साबित हुआ और पैसे लेने वाले सदस्यों ने खुद कबूला, बात कोर्ट तक भी पहुंची, मगर किसी को कोई सजा नहीं हुई।
नए दौर के अधिकतर लोग इस मामले से अनजान हैं, जब कांग्रेस ने अपनी सरकार बचाने के लिए 50-50 लाख में सांसदों के वोट ख़रीदे थे और ये बात सुप्रीम कोर्ट तथा संसद में साबित भी हुई थी, लेकिन किसी को सजा नहीं हुई, क्योंकि उस समय ऐसा कोई प्रावधान या क़ानून ही नहीं था। साल था 1993। देश में पीएम पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। दो साल पहले ही 1991 के लोकसभा चुनावों में 244 सीटें जीतकर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई थी। चुनावों के दौरान ही आतंकी हमले में पूर्व पीएम राजीव गांधी की हत्या हो चुकी थी, इसलिए पार्टी किसी एक व्यक्ति की पीएम उम्मीदवारी पर सहमत नहीं हो पा रही थी। उस समय कांग्रेस में प्रधानमंत्री पद पर कई नेता दावा ठोंक रहे थे। जिसमे, एनडी तिवारी, अर्जुन सिंह, शरद पवार के नाम सबसे आगे थे, मगर नरसिम्हा राव ने बाजी मार ली थी। इसमें तत्कालीन राष्ट्रपति आर वेंकटरमण की भी अहम भूमिका मानी जाती है।
उस समय राष्ट्रपति वेंकटरमण ने बहुमत के आंकड़ों के पुख्ता सबूत के बगैर ही सबसे बड़े दल (कांग्रेस) के नेता को सरकार बनाने का निमंत्रण देने की एक अनोखी परंपरा आरम्भ कर दी थी। चूंकि, नरसिम्हा राव उस समय कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थे और पार्टी के संसदीय दल के नेता भी, इसलिए उन्हें सरकार बनाने का मौका दे दिया गया। उन्होंने अल्पमत में रहते हुए भी सरकार का गठन कर डाला। उस समय देश अर्थव्यवस्था, महंगाई, आतंकवाद जैसे कई संकटों से घिरा हुआ था। अर्थव्यवस्था से निपटने के लिए पीएम राव ने रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे मनमोहन सिंह को अपना वित्त मंत्री नियुक्त किया।
दरअसल, जुलाई 1993 में संसद के मानसून सत्र में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी (CPIM) के सांसद अजय मुखोपाध्याय ने कांग्रेस की राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। उस समय कुल लोकसभा सांसदों की संख्या 528 थी। दावा किया गया था कि कांग्रेस सरकार के पक्ष में महज 251 सांसद ही हैं, जो बहुमत की संख्या से 14 कम है। कई दिनों की चर्चा के बाद 28 जुलाई, 1993 को जब लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान हुआ, तो अचानक आंकड़े पलट गए और सरकार के पक्ष में 265 वोट आ गए, जबकि खिलाफ में महज 251 वोट ही गिरे।
फरवरी 1996 में राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के रविंद्र कुमार ने CBI में शिकायत देते हुए बताया कि 1993 में अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ (यानी सरकार के समर्थन में) लोकसभा में मतदान करने के लिए कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के चार सांसदों सहित कुल 12 सासंदों को करोड़ों रुपये की रिश्वत दी थी और आपराधिक षड्यंत्र रचा था। इस मामले की CBI ने जांच की थी। CBI ने जांच के बाद अपनी चार्जशीट में इस आरोप को सही पाया था।
इस रिश्वतकांड का खुलासा भाजपा नेता और पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने भरी संसद में किया था। अटल जी पूरे सदन के सामने JMM सांसद शैलेंद्र महतो को ले आए थे, जिन्होंने सबके सामने कबूल किया था कि शिबू सोरेन सहित उनकी पार्टी के 4 सांसदों ने अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोट देने और कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के बदले में 50-50 लाख रुपये की रिश्वत ली थी।
CBI ने इस मामले में 3 चार्जशीट कोर्ट में दाखिल की थी। पहली चार्जशीट अक्टूबर 1996 में फाइल की गई थी, इसमें JMM के 4 सांसदों (शिबू सोरेन, साइमन मरांडी, शैलेंद्र महतो और सूरज मंडल) के साथ ही कांग्रेस नेताओं नरसिम्हा राव, सतीश शर्मा, बूटा सिंह को आरोपी बनाया था। इस पहली चार्जशीट में JMM सांसदों पर रिश्वत लेने के आरोप लगाए गए थे। वहीं, दिसंबर 1996 में दूसरी चार्जशीट में CBI ने रिश्वत के लिए पैसों का बंदोबस्त करने वालों के नाम शामिल किए थे। इनमें कांग्रेस नेता वी राजेश्वर राव, कर्नाटक के तत्कालीन सीएम और कांग्रेस नेता वीरप्पा मोइली और उनके मंत्री एन एम रेवन्ना सहित शराब कारोबारी रामलिंगा रेड्डी और एम थिमेगोडा का नाम शामिल था। इन सभी ने रिश्वत के लिए पैसों का इंतज़ाम किया था।
जनवरी 1997 में दाखिल तीसरी चार्जशीट में CBI ने जनता दल के सांसदों सहित अन्य अजीत सिंह, रामलखन सिंह यादव, रामशरण यादव, अभय प्रताप सिंह, भजन लाल, हाजी गुलाम मोहम्मद खान, रौशन लाल, आनंदी चरण दास और जीसी मुंडा का नाम शामिल किया था।
CBI ने अपनी चार्जशीट में बताया था कि लगभग दर्जन भर सांसदों को रिश्वत देने के लिए एक जिप्सी कार में नोटों से भरे सूटकेस भरकर लाए गए थे और कांग्रेस नेता सतीश शर्मा के फार्म हाउस पर आयोजित की गई पार्टी में JMM सासंदों को ये सूटकेस दिए गए थे। चार्जशीट में यह भी आरोप है कि कांग्रेस नेता बूटा सिंह, चारों JMM सांसदों को लेकर पीएम नरसिम्हा राव से मिलवाने के लिए पीएम आवास 7 रेसकोर्स गए थे। इन सांसदों ने रिश्वत के पैसे दिल्ली में ही पंजाब नेशनल बैंक (PNB) बैंक में जमा किए थे।
ट्रायल कोर्ट ने इन सभी लोगों को दोषी करार देते हुए पूर्व पीएम नरसिम्हा राव सहित अन्य को तीन वर्ष जेल की सजा भी सुनाई थी, मगर सर्वोच्च न्यायालय ने ये कहते हुए उनकी सजा निरस्त कर दी थी कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 105(2) के तहत, संसद के किसी भी सदस्य को संसद में दिए गए किसी भी वोट के संबंध में किसी भी कोर्ट में किसी भी कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं ठहरया जा सकता है। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने कांग्रेस नेताओं और JMM सांसदों के खिलाफ सभी मामलों को खारिज कर दिया था। यह रिश्वतकांड आज भी संसदीय इतिहास का सबसे बड़ा रिश्वतकांड माना जाता है।
हालाँकि, 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही दो दशक पुराने फैसले को पलटा और कहा कि अगर सांसद या विधायक रिश्वत लेकर सदन में भाषण देते हैं या वोट देते हैं तो उन पर कोर्ट में आपराधिक मामला चलाया जा सकता है। ये फैसला पूर्व मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली बेंच ने सुनाया था। यानी अब यदि कोई नेता, किसी दल पर विधायकों-सांसदों को खरीदने का आरोप लगता है, तो वो कोर्ट जाकर कार्रवाई की मांग कर सकता है। इससे राजनीति में शुचिता भी बनी रहेगी, केवल आरोप-प्रत्यारोप की सियासत से निजात मिलेगी और जनता का भरोसा भी बरक़रार रहेगा।