
कोच्ची : भारत के कई राज्यों में जनसांख्यिकीय बदलाव एक गंभीर विषय बनता जा रहा है, जिसे नज़रअंदाज़ करना देश की सुरक्षा और सामाजिक संरचना के लिए घातक हो सकता है। हाल ही में सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज़ (CPS) द्वारा जारी एक रिपोर्ट ने केरल में हो रहे इस बदलाव को विस्तार से उजागर किया है। रिपोर्ट के अनुसार, केरल में हिंदुओं की जनसंख्या लगभग 55% है, जबकि मुस्लिम आबादी 27% के करीब है। लेकिन जन्म दर की बात करें तो 2016 के बाद से मुस्लिम समुदाय में जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या हिंदुओं से अधिक हो गई है। 2020 तक यह प्रवृत्ति लगातार बनी रही, जहाँ मुस्लिम बच्चों का जन्म 44% तक पहुँच गया, जबकि हिंदुओं का प्रतिशत गिरकर 41।4% रह गया।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 2008 से 2021 के बीच केरल में होने वाली मौतों में मुस्लिमों की हिस्सेदारी मात्र 20% रही, जो उनकी कुल जनसंख्या के अनुपात में काफी कम है। दूसरी ओर, हिंदुओं की मौतों का प्रतिशत 60% तक पहुँच चुका है, जो स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि मुस्लिम आबादी में मृत्यु दर कम होने और जन्म दर अधिक होने के कारण उनकी जनसंख्या बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। इतना ही नहीं, 2021 में केरल में मुस्लिम समुदाय में 1,04,000 नए लोग जुड़े, जबकि हिंदुओं की आबादी में मात्र 1,099 की बढ़ोतरी हुई। ईसाई समुदाय की स्थिति और भी खराब रही, जहाँ उनकी आबादी में 6,218 की गिरावट दर्ज की गई।
यह स्थिति केवल केरल तक सीमित नहीं है। बंगाल, झारखंड, असम और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी इसी तरह के जनसंख्या असंतुलन के प्रमाण देखे जा सकते हैं। पश्चिम बंगाल में, जहाँ मुस्लिम आबादी कई क्षेत्रों में बहुसंख्यक हो चुकी है, वहाँ संविधान की धज्जियाँ उड़ाते हुए शरिया कानून के मुताबिक फैसले किए जाने लगे हैं। गत वर्ष एक महिला की सार्वजनिक रूप से पिटाई का वीडियो सामने आया था। महिला पर आरोप लगाया गया था कि उसके किसी दूसरे पुरुष से संबंध हैं, इस पर TMC समर्थक तजमुल इस्लाम उर्फ़ JCB ने उसे बेरहमी से पीटा था। हालाँकि, तजमुल उस महिला का कोई नहीं था, किन्तु उसने कानून को हाथ में लेते हुए ये काम किया था। इसके बावजूद सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस (TMC) के एक मुस्लिम विधायक हमीदुर रहमान ने विवादित बयान दिया था कि ''हमारे मुस्लिम राष्ट्र के नियमों के मुताबिक सजा दी गई, महिला का कैरेक्टर खराब था।''
उनका यह बयान न केवल संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है, बल्कि यह दर्शाता है कि जब किसी समुदाय की आबादी बढ़कर बहुसंख्यक हो जाती है, तो वे अपने अनुसार कानून और व्यवस्था लागू करने की कोशिश करने लगते हैं। दरअसल, वो क्षेत्र मुस्लिम बहुल है, और अफगानिस्तान, सीरिया जैसे इस्लामी मुल्कों में व्यभिचार को गंभीर अपराध माना जाता है, किन्तु भारत धर्मनिरपेक्ष देश है और देश का कानून व्यभिचार को अपराध नहीं मानता। सुप्रीम कोर्ट ने 27 सितंबर 2018 को सर्वसम्मति से भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक घोषित कर दिया था। इसके बावजूद संविधान की शपथ लेकर विधायक बने हमीदुर रहमान ने महिला की पिटाई का समर्थन किया, इसका एक बड़ा कारण डेमोग्राफिक चेंज ही है, यदि उस क्षेत्र में आबादी का ये असंतुलन न हुआ होता, तो शायद वहां ये घटना न होती।
झारखंड में भी इसी प्रकार का एक मामला सामने आया था, जब मुस्लिम समुदाय के दबाव के कारण सरकारी स्कूलों में रविवार के स्थान पर शुक्रवार को साप्ताहिक अवकाश घोषित कर दिया गया था। उनका तर्क था कि चूँकि उनकी जनसंख्या अधिक है, इसलिए नियम भी उनके अनुसार लागू किए जाने चाहिए। एक रिपोर्ट के अनुसार, राज्य के शिक्षा विभाग ने खुद ये रिपोर्ट सौंपी थी कि मुस्लिम बहुल इलाकों में मौजूद 519 स्कूलों को वहां के लोग रविवार की जगह जबरन शुक्रवार को बंद करवा देते थे। ये मामला भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने संसद में भी उठाया था, जिसके बाद झारखंड सरकार ने कार्रवाई करते हुए यथास्थिति बहाल करवाई थी। यह एक चौंकाने वाली घटना थी, क्योंकि यह मामला भारत के संवैधानिक मूल्यों और धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ जाता है। यदि इसी तरह दबाव बनता रहा, तो आने वाले समय में अन्य क्षेत्रों में भी इसी तरह के बदलाव देखने को मिल सकते हैं।
झारखंड में तो डेमोग्राफी चेंज का सबसे बड़ा असर वहां के जनजाति समुदाय पर पड़ा है, हाई कोर्ट ने सरकार को इस मुद्दे पर फटकार भी लगाई थी। हाई कोर्ट के एक्टिंग चीफ जस्टिस सुजीत नारायण प्रसाद और जस्टिस एके राय ने कहा था कि झारखंड का निर्माण इसलिए किया गया था, ताकि आदिवासी हितों की रक्षा की जा सके, किन्तु स्थिति देखकर लगता है कि केंद्र सरकार बांग्लादेशी घुसपैठ को रोकने में दिलचस्पी ही नहीं ले रही है। दरअसल, दानियाल दानिश नामक एक याचिकाकर्ता ने हाई कोर्ट से आदिवासियों की घटती तादाद पर ध्यान देने की मांग करते हुए जनहित याचिका दाखिल की थी। याचिकाकर्ता ने कहा था कि, "संथाल परगना क्षेत्र में अनुसूचित जनजातियों की आबादी में वर्ष 1951 में 44.67% थी, जबकि वर्ष 2011 में यह 28.11% रह गई, जबकि मुस्लिम आबादी 9% से बढ़कर 22.73% हो गई है।''
याचिकाकर्ता ने स्पष्ट कहा था कि बांग्लादेशी घुसपैठिए झारखंड में फर्जी तरीके से आधार कार्ड और वोटर ID बनवा रहे हैं, भोली-भाली आदिवासी लड़कियों से विवाह कर उनकी जमीनें हड़प रहे हैं। इस याचिका पर पहले हाई कोर्ट ने राज्य की हेमंत सोरेन सरकार से जवाब माँगा, तो झारखंड सरकार ने कह दिया कि कोई घुसपैठ नहीं हुई है, डेमोग्राफी चेंज के दावे निराधार हैं। हालाँकि, केंद्र ने कोर्ट में हलफनामा देते हुए कहा था कि झारखंड में बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी घुसपैठ हुई है और केंद्र सरकार ने भी वही आंकड़े अपने शपथ पत्र में दिए थे, जो याचिकाकर्ता दानिश ने दिए। इसके बाद HC ने सोरेन सरकार को निर्देश दिए कि वो एक फैक्ट फाइंडिंग समिति के लिए नाम सुझाए, जो झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ की जांच करेगी, क्योंकि यदि घुसपैठ नहीं हुई है तो, फिर आदिवासी आबादी क्यों घटी? हालाँकि, सोरेन सरकार नाम देने के बजाए सुप्रीम कोर्ट पहुँच गई और वहां कपिल सिब्बल ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगवा दी। ऐसे में ये मामला फिर से ठंडे बस्ते में चला गया।
तमिलनाडु में भी जनसंख्या परिवर्तन के कारण सामाजिक ताने-बाने में बदलाव देखा गया है। एक गाँव में मुस्लिम आबादी बढ़ने के बाद हिंदुओं की पारंपरिक यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कारण बताया गया कि इस्लाम में मूर्ति पूजा की अनुमति नहीं है, और चूँकि अब यह क्षेत्र मुस्लिम बहुल हो चुका है, इसलिए वहाँ हिंदू धार्मिक क्रियाएँ नहीं हो सकतीं। यही नहीं, वोट बैंक की राजनीति के चलते डीएमके सरकार ने दशकों से चली आ रही हिंदू धार्मिक यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसे बाद में मद्रास हाई कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही अनुमति मिली।
इन घटनाओं से स्पष्ट है कि यह केवल सांप्रदायिकता का मुद्दा नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा गंभीर प्रश्न है। जब किसी क्षेत्र में एक समुदाय की जनसंख्या तेज़ी से बढ़ती है और दूसरा समुदाय जनसंख्या दर में गिरावट झेल रहा होता है, तो उसका सीधा असर वहाँ की सामाजिक और प्रशासनिक व्यवस्था पर पड़ता है। यह बदलाव केवल धार्मिक संतुलन तक सीमित नहीं रहता, बल्कि इसका प्रभाव कानून-व्यवस्था, राजनीति और प्रशासनिक नीतियों पर भी पड़ता है। यदि यही प्रवृत्ति जारी रही, तो निकट भविष्य में भारत के कई हिस्सों में बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यक बन जाएगा, और तब वही समुदाय अपनी धार्मिक मान्यताओं के आधार पर कानून बनाने की माँग करेगा।
इतिहास गवाह है कि जब-जब किसी देश में इस तरह का जनसांख्यिकीय असंतुलन हुआ है, वहाँ सामाजिक संघर्ष और अस्थिरता बढ़ी है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश इसके उदाहरण हैं, जहाँ एक समय हिंदू और अन्य धर्मों के लोग बहुसंख्यक हुआ करते थे, लेकिन धीरे-धीरे उनकी संख्या घटती गई और अब वे अल्पसंख्यक बनकर रह गए हैं और धार्मिक आधार पर प्रताड़ना झेल-झेलकर अब शून्य होने की कगार पर हैं । यही प्रक्रिया यदि भारत में भी दोहराई गई, तो इसका अंजाम बेहद भयावह हो सकता है।
यह आवश्यक है कि सरकार और जनता इस विषय को गंभीरता से लें और जनसंख्या संतुलन को बनाए रखने के लिए ठोस कदम उठाएँ। नीतिगत रूप से जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने की आवश्यकता है, ताकि सभी समुदायों के लिए समान नियम लागू किए जा सकें। इसके अलावा, अवैध घुसपैठ और धर्मांतरण के माध्यम से होने वाले जनसंख्या परिवर्तनों पर सख्ती से रोक लगाने की जरूरत है। यदि समय रहते इस विषय पर ध्यान नहीं दिया गया, तो आने वाले वर्षों में यह समस्या और विकराल रूप धारण कर सकती है। यह केवल एक सांप्रदायिक चर्चा नहीं, बल्कि देश की सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता से जुड़ा हुआ गंभीर मुद्दा है। यदि इसे हल्के में लिया गया, तो भारत को बांग्लादेश-पाकिस्तान बनने से कोई नहीं रोक सकता।