क्या सचमुच संजय गांधी ने माँ इंदिरा पर उठाया था हाथ? पुलित्जर पुरस्कार विजेता पत्रकार ने किया दावा

संजय गांधी का जीवन अधिक लंबा तो नहीं चला और न ही उन्होंने भारतीय राजनीति में कोई संवैधानिक पद संभाला, किन्तु इसके बाद भी देश में कई ऐसी विवादित घटनाएं हुईं हैं, जिनपर संजय के फैसलों की छाप दिखती है, फिर चाहे वो इमरजेंसी हो, नसबंदी कार्यक्रम हो, बुलडोज़र एक्शन हो या अपनी माँ इंदिरा गांधी से अनबन।

क्या सचमुच संजय गांधी ने माँ इंदिरा पर उठाया था हाथ? पुलित्जर पुरस्कार विजेता पत्रकार ने किया दावा

Photo Credit: Twitter/ इंदिरा गांधी और संजय गांधी के विवादित किस्से

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Highlights

  • संजय गांधी के विवादित फैसले।
  • संजय गांधी ने की बुलडोज़र एक्शन की शुरुआत।
  • संजय गांधी ने माँ इंदिरा को मारे थे थप्पड़ ?

नई दिल्ली : भारतीय राजनीति में जय गांधी का स्थान एक ऐसा अध्याय है, जो ना केवल उनकी कड़ी नीतियों, बल्कि उनके सपनों और जीवन के उतार-चढ़ाव के कारण हमेशा चर्चा में रहा। इंदिरा गांधी के छोटे बेटे और राजीव गांधी के छोटे भाई संजय ने केवल 33 साल के जीवन में भारतीय राजनीति पर अपनी गहरी छाप छोड़ी। उनकी जिंदगी में कई ऐसे पहलू और किस्से हैं, जो आज भी लोगों के बीच चर्चा का विषय हैं।

मारुती मोटर्स की शुरुआत :

14 दिसंबर 1946 को जन्मे संजय गांधी का झुकाव शुरू से ही राजनीति और प्रशासन की ओर था। पढ़ाई के बाद उन्होंने रॉल्स-रॉयस में इंटर्नशिप की और ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री के प्रति उनका रुझान गहरा हुआ। यह वही समय था, जब उन्होंने भारत में आम आदमी की कार बनाने का सपना देखा। इसी सपने को साकार करने के लिए उन्होंने 'मारुति मोटर्स लिमिटेड' की नींव रखी। यह कार भारत में उस समय के मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए एक क्रांति साबित हुई।  

आपातकाल में सुपर PM बने संजय :

1975-77 के आपातकाल का दौर भारतीय लोकतंत्र में एक काला अध्याय माना जाता है। इस दौरान संजय गांधी की भूमिका को लेकर कई सवाल उठाए गए। कई राजनितिक विश्लेषकों का मानना कि आपातकाल के दौरान संजय ने इंदिरा गांधी की सरकार को अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित किया था। वे उस दौर में देश के सुपर PM की तरह काम कर रहे थे और उनके कुछ फैसले कठोर और तानाशाही प्रवृत्ति के माने गए। आपातकाल का फैसला भी संजय के ही दिमाग की उपज थी। 

1976 में 'परुष नसबंदी' का विवादास्पद फैसला संजय गांधी के जीवन का सबसे चर्चित और आलोचना झेलने वाला कदम था। इस योजना के तहत 16 साल के किशोरों से लेकर 70 साल के बुजुर्गों तक की जबरन नसबंदी कराई गई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, एक साल में 60 लाख से अधिक लोगों की नसबंदी की गई। यह फैसला आज भी भारत के बुजुर्गों के बीच डर और नफरत के साथ याद किया जाता है।  

युवा कांग्रेस के शिल्पकार संजय गांधी :

संजय गांधी केवल विवादों के लिए नहीं, बल्कि अपने दूरदर्शी दृष्टिकोण के लिए भी जाने जाते थे। उन्होंने भारतीय युवा कांग्रेस को एक नई पहचान दी। 1970 के दशक में युवा कांग्रेस का नेतृत्व करते हुए उन्होने न केवल राजनीति में नई ऊर्जा का संचार किया, बल्कि अपने नेतृत्व में इसे मजबूत बनाया। संजय गांधी को इंदिरा गांधी का उत्तराधिकारी माना जाता था। कहा जाता है कि आपातकाल के दौरान इंदिरा के कई बड़े फैसलों में संजय की सलाह प्रमुख होती थी। 

प्रेम संबंध और मेनका से शादी :

संजय गांधी का व्यक्तिगत जीवन भी किसी फ़िल्मी कहानी से कम नहीं था। सबसे पहले उनकी जिंदगी में एक मुस्लिम लड़की आई, किन्तु दोनों के बीच के रिश्तों में जल्द ही दरार आ गई। इसके बाद उन्हें एक जर्मन लड़की सैबीन वॉन स्टीग्लिट्स के साथ इश्क़ हुआ। सैबीन वॉन स्टीग्लिट्स ही वो लड़की थी, जिसने राजीव गांधी को सोनिया गांधी से मिलवाया था और अब सैबिन संजय के करीब आ चुकी थी। दोनों एक दूसरे को काफी पसंद भी करते थे, मगर किसी अनबन की वजह से दोनों के बीच दूरियां बढ़ गई। बताया जाता है कि, संजय अपने काम पर अधिक ध्यान देते थे, और सैबिन को समय नहीं दे पाते थे, जिसके चलते उनका रिश्ता जल्द ही खत्म हो गया। 

इसके अलावा भी संजय का नाम कुछ महिलाओं के साथ जुड़ा, लेकिन अंततः उनकी मुलाकात 17 साल की मेनका आनंद से हुई, जो आगे चलकर उनकी जीवनसंगिनी बनीं। 23 दिसंबर 1974 को दोनों ने शादी की। यह शादी उनके करीबी मित्र मोहम्मद यूनुस के घर पर हुई। इंदिरा गांधी ने मेनका को 21 साड़ियाँ उपहार में दीं, जिनमें से एक साड़ी खुद जवाहरलाल नेहरू ने जेल में बुनी थी।  

संजय गांधी ने शुरू किया था बुलडोज़र एक्शन :

ये वो समय था, जब शासन-प्रशासन में संजय गांधी की तूती बोलती थी। कहने को तो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर उनकी माता श्रीमती इंदिरा गांधी बैठीं थीं, लेकिन पॉवर संजय के हाथ में थी, जो आपातकाल के दौरान और भी बढ़ गई थी। अप्रैल 1976 की बात है, जब देश आपातकाल की मार झेल रहा था। उस समय संजय गांधी, दिल्ली विकास प्राधिकारण (DDA) के तत्कालीन अध्यक्ष जगमोहन के साथ दिल्ली के तुर्कमान गेट पर पहुंचे। इंदिरा गाँधी की जीवनी लिखने वाली कैथरीन फ्रैंक अपनी किताब में लिखती हैं कि संजय गांधी ने इच्छा जताई कि 'उन्हें तुर्कमान गेट से जामा मस्जिद स्पष्ट दिखनी चाहिए।'

संजय गांधी की ये इच्छा जगमोहन के लिए किसी आदेश से कम नहीं थी, उसी दिन तय हो गया था कि संजय गांधी की दृष्टि और जामा मस्जिद के बीच आने वाली हर चीज़ हटा दी जाएगी। चंद दिन भी नहीं गुजरे थे और उसी अप्रैल के महीने में बुलडोज़र तुर्कमान गेट पर पहुँच चुके थे। ये एक मुस्लिम बहुल इलाका था, जो पहले भी अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई करने आई पुलिस को पीट-पीटकर भगा चुका था, किन्तु अब स्थिति दूसरी थी। आदेश बहुत ऊपर से था और यही कारण रहा कि बुलडोज़र टीम के साथ पुलिस और 7 ट्रकों में भरकर CPRF जवान भी तैनात कर दिए गए थे। मुस्लिम महिलाएं और बच्चे सड़क पर बैठकर प्रदर्शन कर रहे थे, कुछ लोग पथराव भी कर रहे थे, लेकिन प्रशासन टस से मस नहीं हुआ। 

मामला बढ़ता देख, पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। सरकारी रिकार्ड्स कहते हैं कि महज 14 राउंड फायरिंग की गई और उसमे भी अधिकतर हवाई फायरिंग थी, जो भीड़ को तीतर बितर करने के लिए थी। हालाँकि, गैर-सरकारी और स्वतंत्र विश्लेषक इस बात को नहीं मानते। बहरहाल, पुलिस और सुरक्षाबलों ने बलपूर्वक सैकड़ों लोगों को शाहजहाँनाबाद की तंग गलियों में खदेड़ना शुरू कर दिया था और उनके मकान ढहाए जा रहे थे। लोग कह रहे थे कि वे झुग्गी वाले नहीं हैं, वे हाउस टैक्स भी चुकाते हैं, लेकिन उनकी पर्चियों का प्रशासन पर कोई असर नहीं था। देखते ही देखते पूरा तुर्कमान गेट मैदान बन चुका था और वहां बिखरे नज़र आ रहे थे, कुछ घरेलु सामान, खून और लाशें। 

इतिहासकार बिपिन चंद्रा ने अपनी किताब 'इन द नेम ऑफ़ डेमॉक्रेसी' में पुलिस फायरिंग में जान गंवाने वालों की तादाद 20 बताई है, जबकि वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी किताब 'द जजमेंट' में 150 लोगों के मारे जाने का दावा करते हैं। हालाँकि, सरकारी आंकड़े केवल 6 लोगों के मरने की बात कह रहे थे। इस घटना की सच्चाई कभी सामने नहीं आई, क्योंकि इंदिरा सरकार ने इसे मीडिया में छपने से ही रोक दिया था। अगले दिन, भारत के प्रमुख अख़बार इंडियन एक्सप्रेस में फ्रांस में छात्रों के प्रदर्शन की खबर फ्रंट पेज पर थी, लेकिन दिल्ली में हुई इतनी बड़ी घटना का जिक्र गायब था। 

1977 में जब शाह कमीशन बना, तो उसकी जांच रिपोर्ट में बताया गया कि पुलिस ने महिलाओं-बच्चों और पुरुषों को भी घरों से घसीटकर पीटा था और उनके जेवरात भी उठा लिए थे। रिपोर्ट में ये भी बताया गया था कि पुलिस की गोली से घायल हुए लोगों को भी पुलिस ने बुरी तरह पीटा। इस मामले को लेकर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने भी इंदिरा गांधी से शिकायत की, लेकिन इंदिरा ने उनकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। 

तुर्कमान गेट के रहवासियों को जहाँ 'कथित' पुनर्वास दिया गया, वहां का आलम और भी बदतर था। भारतीय राजनीति पर रिसर्च करने वाले अमेरिकी विद्वान पॉल ब्रास ने अपनी किताब में एन इंडियन पॉलिटिकल लाइफ़ चरण सिंह एंड कांग्रेस पॉलिटिक्स' में बताया है कि, कॉलोनी में केवल 18 शौचालय थे, और उनकी भी चाटें तथा दरवाजे नहीं थे, भीड़ रोज़ सुबह उसके सामने लाइन लगाकर खड़ी होती थी। हर परिवार को रहने के लिए महज 20 वर्ग मीटर जमीन दी गई थी, जिसको लेकर जस्टिस जे सी शाह ने कहा था कि 'इतनी छोटी जगह में तो एक जानवर भी नहीं रखा जा सकता।'  

संजय गांधी की इस बुलडोज़र कार्रवाई की यदि आज के बुलडोज़र एक्शन से तुलना करके देखें, तो निश्चित ही आपको आज का समय अधिक लोकतांत्रिक लग सकता है, जहाँ अदालतें सरकारों को कार्रवाई करने से रोक देती हैं।     

इंदिरा को मारे थप्पड़?

एक बार अपनी माँ इंदिरा गांधी को थप्पड़ मारने को लेकर भी संजय गांधी का नाम काफी सुर्ख़ियों में रहा था। दरअसल, 1977 में 'द वॉशिंगटन पोस्ट' के संवाददाता लुइस एम सिमंस ने अपने एक लेख में दावा किया था कि संजय ने एक डिनर पार्टी में इंदिरा गांधी को छह थप्पड़ मारे थे, ये खबर विदेशी अखबारों में जमकर चली थी। लेकिन, भारत में आपातकाल और मीडिया पर सेंसरशिप लागू होने के चलते नहीं छप पाई। बाद में जब BBC के साथ एक इंटरव्यू में इंदिरा से इस बारे में सवाल किया गया, तो उन्होने इसे ख़ारिज करते हुए कहा कि संजय ने उन्हें कोई थप्पड़ नहीं मारा है।

संजय गांधी की जिंदगी 23 जून 1980 को एक विमान दुर्घटना में समाप्त हो गई। सफदरजंग हवाई अड्डे से उड़ान भरते समय उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिसमें उनकी और उनके प्रशिक्षक सुभाष सक्सेना की मृत्यु हो गई। इस घटना ने भारतीय राजनीति को गहरा आघात पहुँचाया। संजय गांधी का जीवन भले ही विवादों और असमय मृत्यु के कारण अधूरा रहा हो, लेकिन उनकी विरासत आज भी भारतीय राजनीति और समाज में महसूस की जाती है। मारुति 800 से लेकर युवा कांग्रेस तक, उन्होंने जो पहल की, वह आज भी उनकी दूरदर्शिता का प्रमाण है। उनके कठोर फैसलों और विवादित व्यक्तित्व के बावजूद, यह कहना गलत नहीं होगा कि संजय गांधी ने अपने छोटे जीवनकाल में भारतीय राजनीति और समाज पर गहरी छाप छोड़ी, जिनसे सीख भी ली जा सकती है और सबक भी।

 

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