
आधुनिक समय में परिवार की संरचना एवं प्रकारों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। आधुनिकता, नगरीकरण, और उपभोक्तावाद की बढ़ती प्रवृत्तियों ने पारंपरिक पारिवारिक व्यवस्था को प्रभावित किया है। विशेषकर संयुक्त परिवार, जो भारतीय समाज की रीढ़ माने जाते हैं, अब धीरे-धीरे विघटित हो रहे हैं। यह विघटन हमारी पारिवारिक शक्ति को कमजोर कर रहा है, जो हमारी सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों की मूल भावना से मेल नहीं खाता। परिवार केवल सामाजिक इकाई नहीं, बल्कि हमारी आंतरिक ऊर्जा और नैतिक बल का केंद्र होता है। यहीं से हमारे भीतर सद्गुणों का विकास होता है। बच्चों के निर्माण और विकास में परिवार की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। बच्चा परिवार में जन्म लेता है, वहीं से उसे सामाजिक पहचान मिलती है और वह अच्छे-बुरे संस्कार सीखता है।
बच्चे के व्यक्तित्व पर सबसे पहला और गहरा प्रभाव उसके पारिवारिक वातावरण का पड़ता है। यदि पारिवारिक माहौल सकारात्मक और प्रेमपूर्ण हो, तो बच्चा मानसिक रूप से सबल बनता है। उसकी बौद्धिक, सामाजिक और आध्यात्मिक क्षमताओं में भी सकारात्मक विकास देखने को मिलता है। इसके विपरीत, यदि परिवार का वातावरण तनावपूर्ण या असंतुलित हो, तो बच्चा भीतर से टूटने लगता है। उसका मानसिक और बौद्धिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। वह नकारात्मक विचारों से ग्रसित होने लगता है, हमेशा बेचैनी या उदासी में रहता है, और कभी-कभी हिंसक भी हो सकता है।
आजकल जीविकोपार्जन की आपाधापी, प्रतिस्पर्धा और व्यस्त जीवनशैली ने माता-पिता को इतना व्यस्त कर दिया है कि वे अपने बच्चों के लिए पर्याप्त समय नहीं निकाल पाते। कई बार यह स्थिति इतनी विकट हो जाती है कि माता-पिता अपने बच्चों को घर से दूर हॉस्टलों में भेज देते हैं। छोटे-छोटे बच्चे, जिन्हें अपने परिवार से स्नेह, मार्गदर्शन और शिक्षा मिलनी चाहिए थी, वह सब उनसे छिन जाता है।
इस कारण वे न तो पारिवारिक जिम्मेदारियों को ठीक से समझ पाते हैं और न ही रिश्तों की अहमियत को पहचान पाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वे बड़े होकर भावनात्मक रूप से कमजोर, आत्मकेन्द्रित और संबंधों के प्रति उदासीन बन जाते हैं। वे पारिवारिक मूल्यों, उत्तरदायित्वों और सामूहिक जीवन के महत्व को नहीं समझ पाते। यह प्रवृत्ति न केवल व्यक्तिगत स्तर पर हानिकारक है, बल्कि समग्र समाज के लिए भी चिंता का विषय है।
जैसा कि हम सभी जानते हैं, परिवार एक मौलिक और सार्वभौमिक सामाजिक इकाई है। इसे सामाजिक व्यवस्था का प्रमुख आधार माना जाता है, जो व्यक्ति के समाजीकरण (socialization) और मानवीकरण (humanization) की प्रक्रिया को प्रारंभ करता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री चार्ल्स कूले (Charles Cooley) ने परिवार को एक प्रमुख प्राथमिक समूह (Primary Group) माना है, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण और सामाजिक संबंधों के विकास में अहम भूमिका निभाता है। वहीं समाजशास्त्री यंग और मैक (Young and Mack) के अनुसार, “परिवार सबसे पुराना और मौलिक मानव समूह है।” यद्यपि पारिवारिक ढांचे का स्वरूप एक समाज से दूसरे समाज में भिन्न हो सकता है, किंतु परिवार की उपस्थिति प्रत्येक समाज में अवश्य होती है।
परिवार दो प्रमुख कार्य करता है:
इन दोनों कार्यों के माध्यम से परिवार न केवल व्यक्ति को सामाजिक रूप से सक्षम बनाता है, बल्कि सांस्कृतिक विरासत को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने में भी सहायक होता है। इस दृष्टि से परिवार एक ऐसी सामाजिक संस्था है, जिसका सदस्य प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में अवश्य होता है — चाहे वह बच्चा हो, युवा हो या वृद्ध। साथ ही, व्यक्ति किसी न किसी अवस्था में परिवार पर आश्रित भी होता है, विशेषकर बचपन और वृद्धावस्था में। इस प्रकार, परिवार मानव जाति के आत्म-संरक्षण (self-preservation), वंशवृद्धि (reproduction) तथा जातीय जीवन की निरंतरता (continuity of social life) को बनाए रखने का एक अत्यंत महत्वपूर्ण साधन है।
परिवार एक ऐसी सामाजिक इकाई है, जिसमें दोनों लिंगों के वे व्यक्ति शामिल होते हैं जो आपस में विवाह, रक्त संबंध या दत्तक ग्रहण जैसे वैधानिक और सामाजिक संबंधों के माध्यम से जुड़े होते हैं। ये सदस्य आयु, लिंग और सामाजिक संबंधों के अनुसार निर्धारित भूमिकाएँ निभाते हैं और प्रायः एक ही घर में सामूहिक रूप से निवास करते हैं।
हिंदी में प्रयुक्त "परिवार" शब्द अंग्रेज़ी के "Family" का रूपांतरण है, जो लैटिन भाषा के शब्द ‘Famulus’ से निकला है। इस शब्द का प्रयोग उन समूहों के लिए किया जाता था जिनमें माता-पिता, संतान, नौकर तथा दास एक साथ रहते थे। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से, परिवार वह समूह है जिसमें पति-पत्नी और उनके बच्चे प्रमुख रूप से सम्मिलित होते हैं।
परिवार की विशेषताएँ:
परिवार एक छोटा सामाजिक संगठन होता है जो विवाह, रक्त संबंधों और नातेदारी के आधार पर निर्मित होता है। इसमें वैयक्तिकता, प्राथमिक संबंध (Primary Relations) और स्थायित्व (Stability) जैसे तत्व प्रमुख रूप से विद्यमान होते हैं। माता-पिता और उनके बच्चों से बना छोटा समूह सामाजिक ढांचे की केंद्रीय इकाई माना जाता है।
प्रसिद्ध समाजशास्त्रियों ने परिवार की व्याख्या इस प्रकार की है:
आगबर्न और निमकॉफ ने अपनी पुस्तक A Handbook of Sociology में कहा है: “परिवार वह संस्था है जिसमें पति-पत्नी (बच्चों के साथ या बिना) अथवा एकल अभिभावक और उनके बच्चे एक स्थायी समूह के रूप में रहते हैं।”
लूसी मेयर ने An Introduction to Social Anthropology में लिखा है: “परिवार एक गृहस्थ समूह होता है जिसमें माता-पिता और उनकी संतानें साथ-साथ निवास करती हैं। इसके मूल रूप में एक दंपत्ति और उनकी संतानें होती हैं।”
जैली ने अपनी पुस्तक Hindu Law and Custom में बताया है: “केवल माता-पिता और संतान ही नहीं, बल्कि भाई, सौतेले भाई, पूर्वज, वंशज और समांतर संबंधी भी परिवार का हिस्सा हो सकते हैं। ये सभी कभी-कभी संपत्ति और उत्तराधिकार में साझेदार होते हैं।” इस प्रकार, किसी भी समाज में पारिवारिक संरचना उस समाज की सांस्कृतिक परंपराओं और सामाजिक नियमों के अनुसार एक विशेष स्वरूप ग्रहण करती है।
1. विस्तृत परिवार (Extended Family): पश्चिमी और सामान्य समाजों में वह परिवार जिसमें तीन पीढ़ियाँ एक साथ निवास करती हैं—जैसे वृद्ध माता-पिता, उनके विवाहित पुत्र, पुत्रवधुएँ और पोते–पोती—को विस्तृत परिवार कहा जाता है। इस प्रकार के परिवार में परंपराएं, अनुभव और पारिवारिक मूल्यों का आदान–प्रदान पीढ़ी दर पीढ़ी होता है।
2. संयुक्त परिवार (Joint Family): संयुक्त परिवार भारतीय समाज की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। भारत में इस प्रकार के परिवारों की परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है। संयुक्त परिवार वह होता है जिसमें एक ही छत के नीचे एक ही वंश के अनेक सदस्य—जैसे दादा-दादी, चाचा-चाची, भाई-भाभी, भतीजे-भतीजियाँ आदि—साथ रहते हैं। सभी सदस्य पारस्परिक सहयोग, समान आय-संसाधनों और उत्तरदायित्वों को साझा करते हैं।
संयुक्त और नाभिकीय (एकल) परिवार : बदलती पारिवारिक संरचनाएँ- संयुक्त परिवार वह सामाजिक इकाई है, जिसमें एक ही वंश या गोत्र के कई सदस्य एक साथ रहते हैं। वे सभी पूजा-पाठ, संस्कारों तथा पारिवारिक परंपराओं में भाग लेते हैं और आपस में रक्त संबंध रखते हैं।
संयुक्त परिवार की अवधारणा को लेकर विभिन्न समाजशास्त्रियों ने अपने-अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत किए हैं। इरावती कर्वे के अनुसार, संयुक्तता का मुख्य आधार सहनिवासिता (co-residence) है — अर्थात् एक ही छत के नीचे परिवार के सभी सदस्य मिल-जुलकर रहते हैं। वहीं हेरोल्ड गोल्ड, रामकृष्ण मुखर्जी, एस.सी. दुबे और बी.एस. कोहली जैसे समाजशास्त्री मानते हैं कि केवल सहनिवास और सहभोजन (साथ खाना खाना) ही संयुक्त परिवार की पहचान नहीं है, बल्कि पारस्परिक उत्तरदायित्व, भावनात्मक जुड़ाव और सामाजिक सहयोग भी आवश्यक घटक हैं।
नाभिकीय या एकल परिवार (Nuclear Family): नाभिकीय परिवार आधुनिक समाज की पारिवारिक संरचना का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें केवल पति-पत्नी और उनके अविवाहित बच्चे शामिल होते हैं। भारत जैसे पारंपरिक समाज में एकल परिवारों की अवधारणा नगरीकरण, औद्योगीकरण, पश्चिमीकरण, आधुनिकीकरण और तकनीकी विकास के प्रभावों से उत्पन्न हुई है।
वर्तमान समय में लोग व्यक्तिगत स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता और गोपनीयता को अधिक प्राथमिकता देते हैं। यही कारण है कि अधिकतर युवा जोड़े विवाह के बाद संयुक्त परिवार की अपेक्षा एकल परिवार को वरीयता देने लगे हैं।
हालाँकि, एकल परिवारों की बढ़ती प्रवृत्ति ने परिवारों की सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारियों में कमी लाई है। व्यक्तिवाद और भौतिकवाद एकल परिवारों को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे सामाजिक ढांचे में अलगाव, अकेलापन और भावनात्मक दूरी जैसी समस्याएँ जन्म ले रही हैं।
वर्तमान सामाजिक परिवर्तन और पारिवारिक संकट: भारत में तेजी से सामाजिक बदलाव हो रहे हैं और इसका सीधा असर परिवार नामक संस्था पर पड़ा है। अब परिवार केवल चार दीवारों का मकान नहीं रहा, बल्कि उसमें रहने वाले लोगों के आपसी प्रेम, समर्पण, समझदारी और सांस्कृतिक मूल्यों से ही वह "घर" का रूप लेता है।
इन परिस्थितियों ने पारिवारिक संरचना को कमजोर किया है और इसका गंभीर प्रभाव बच्चों के सर्वांगीण विकास पर पड़ा है। जहाँ एक ओर पारिवारिक रिश्तों की नींव हिल रही है, वहीं दूसरी ओर बच्चों की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक सुरक्षा भी खतरे में पड़ गई है।
एकल अभिभावकों द्वारा बच्चों का पालन-पोषण करते समय कई बार ऐसा देखा गया है कि:
समाधान और सावधानियाँ: परिवार चाहे संयुक्त हो या एकल, उसका मुख्य उद्देश्य बच्चों और परिवार के सदस्यों को संरक्षण, संस्कार, स्नेह और नैतिक मूल्य प्रदान करना होता है। आज की सामाजिक स्थिति को देखते हुए यह आवश्यक है कि: बच्चों की भावनात्मक आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी जाए। माता-पिता अपने व्यस्त जीवन से समय निकालकर बच्चों के साथ संवाद स्थापित करें। पारिवारिक मूल्यों, संस्कृति और अनुशासन को परिवार का आधार बनाया जाए। एकल अभिभावकों को विशेष रूप से बच्चों की मानसिक स्थिति पर ध्यान देना चाहिए, ताकि उनका संतुलित विकास संभव हो सके।
पिछले 50 वर्षों में पारिवारिक संरचना में बदलाव और एकल अभिभावकों की चुनौतियाँ: पिछले पाँच दशकों में भारतीय समाज में पारिवारिक संरचना में तेज़ी से परिवर्तन आया है। पहले जहाँ परिवार में माता-पिता संयुक्त रूप से बच्चों की परवरिश करते थे, वहीं अब एकल परिवार (Single Parent Families) का चलन बढ़ रहा है। एकल अभिभावक परिवारों के पीछे कई कारण हो सकते हैं — जैसे तलाक, पति-पत्नी के बीच अलगाव, अथवा किसी एक जीवनसाथी की मृत्यु।
एकल अभिभावकों की समस्याएँ: एकल अभिभावकों को अनेक सामाजिक, मानसिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जब पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी अकेले एक व्यक्ति पर आ जाती है, तब जीवन का संतुलन बनाए रखना अत्यंत कठिन हो जाता है।
अभिभावक अकेलेपन, अवसाद और मानसिक थकावट से जूझते हैं, विशेषकर तब जब उन्हें बच्चों की देखरेख, नौकरी और घरेलू कार्यों को अकेले ही सँभालना होता है।
एकल अभिभावकों की भूमिका: एकल अभिभावकों को बच्चों की परवरिश पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। उन्हें हर निर्णय सोच-समझकर लेना होता है ताकि बच्चे का समुचित विकास हो सके। ऐसे अभिभावकों की सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि वे अपने बच्चों को समय भी दें, मार्गदर्शन भी करें और आवश्यक संसाधन भी उपलब्ध कराएँ। फायदे की दृष्टि से देखा जाए तो बच्चे एकल अभिभावकों के प्रति अधिक भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं। साथ ही वे समय के साथ ज़िम्मेदार और आत्मनिर्भर भी बनते हैं।
महिलाओं के नेतृत्व में एकल अभिभावक परिवार: जब परिवार की देखभाल अकेली महिला द्वारा की जाती है, तो चुनौतियाँ और अधिक बढ़ जाती हैं। एकल माताओं को बच्चों की शिक्षा, सुरक्षा, भविष्य और सामाजिक स्थिति की चिंता अकेले ही करनी होती है। इसके अतिरिक्त उन्हें अपने लिए भी मानसिक और शारीरिक सशक्तिकरण की ज़रूरत होती है।
समाज में हो रहे बदलाव और नातेदारी में कमी: एकल अभिभावकों की संख्या में वृद्धि समाज के बदलते स्वरूप की ओर इशारा करती है। ग्रामीण और शहरी, दोनों क्षेत्रों में संयुक्त परिवारों की जगह एकल परिवारों ने ले ली है। रिश्तों में विश्वास की कमी और आत्मकेंद्रित सोच के चलते नातेदारियों का बिखराव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
साहित्यिक अवलोकन और शोध निष्कर्ष: पिछले पचास वर्षों में पारिवारिक संस्थाओं और उनकी संरचनाओं पर कई अध्ययन हुए हैं। इन अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय समाज में एकल अभिभावकों को कई सामाजिक और मानसिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
स्टीफन और लॉरेंस (2016): इन दोनों शोधकर्ताओं ने नाइजीरिया के अमासोमा समुदाय का सूक्ष्म अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि एकल माता-पिता के घरों में रहने वाले बच्चों को अधिक सामाजिक और मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उन्होंने यह भी पाया कि अभिभावक के अलगाव के समय, परिवार और बच्चे दोनों गंभीर मानसिक दबाव में रहते हैं।
पाल अमाटे, सारा पैटरसन और बट्रे बीटी: इन शोधकर्ताओं ने 1990 से 2011 तक के समय में एकल माता-पिता के साथ रहने वाले बच्चों की शैक्षणिक उपलब्धियों पर अध्ययन किया। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि एकल माता-पिता परिवारों में वृद्धि ने बच्चों की शैक्षिक प्रगति को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है।