अपनी ही धरती पर छले जा रहे आदिवासी, छीनी जा रही जल-जंगल-जमीन

आदिवासी, जिन्हे भारत का मूल निवासी कहा जाता है, वही समुदाय आज प्रशासनिक लापरवाही के कारण कई तरह की समस्याओं का सामना कर रहा है। धर्मान्तरण के अतिरिक्त, जनजाति समुदाय के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों पर भी अन्य समुदाय के लोगों द्वारा कब्जा किया जा रहा है और आदिवासी वोट बैंक पर सत्ता सुख भोगने वाली सरकार मूकदर्शक बनी हुई है।

अपनी ही धरती पर छले जा रहे आदिवासी, छीनी जा रही जल-जंगल-जमीन

धर्मान्तरण और अशिक्षा का शिकार हो रहे आदिवासी, गंवा रहे अपनी जमीन और अधिकार

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Highlights

  • भारत में मूल निवासी आदिवासियों की दुर्गति।
  • धर्मांतरण और घुसपैठ की चपेट में आदिवासी समुदाय।
  • झारखंड में क्यों घट रही आदिवासी आबादी?

नई दिल्ली : भारत के मूल निवासी माने जाने वाले आदिवासी समुदाय के अधिकारों को अक्सर राष्ट्रीय राजनीति में चर्चा चलती रहती है। किन्तु मुग़ल आक्रांताओं से लेकर अंग्रेज़ों तक से लोहा लेने वाला ये समुदाय आज, अपने ही अधिकारों को बचाने के लिए संघर्ष करता नज़र आ रहा है। एक समय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जनजाति समुदाय (Schedule Tribes) को गिरिजन नाम दिया था, क्योंकि वे वनों में रहते हैं और जल, जंगल जमीन की रक्षा करते हैं। 

आज स्थिति ये है कि जनजाति समुदाय के अधिकारों की बातें तो हर चुनाव में होती हैं, किन्तु मतदान होते ही उन्हें भुला दिया जाता है। कहीं मिशनरियों द्वारा धर्मांतरण करके आदिवासियों को उनकी आस्था से भटकाया जा रहा है, तो कहीं साजिशों के तहत उनकी जमीनें हड़पी जा रही हैं और उनके अधिकार छीने जा रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण राजनेताओं की निष्क्रियता भी है, तो भोले-भाले आदिवासियों का कम पढ़ा लिखा होना भी एक वजह है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, जनजाति समुदाय में साक्षरता दर 59% थी, जो राष्ट्रीय साक्षरता दर (73%) से काफी कम थी। 

कागज़ों पर नकली आदिवासी बनने का खेल :

आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ और झारखंड में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जहाँ अन्य समुदाय के लोगों ने कागज़ों पर आदिवासी बनकर जनजातीय समुदाय को मिलने वाले लाभों में सेंधमारी की है। 

5 वक़्त के नमाज़ी प्रसन्ना राम, लेकिन कागज़ों पर आदिवासी :

ये मामला है, छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले का साईटांगरटोली गांव का, यहाँ  ग्राम पंचायत जनजातीय समुदाय के लिए आरक्षित है, लेकिन यहां चुनाव जीतने का तरीका बेहद अलग और चौंकाने वाला रहा। यहाँ समुदाय विशेष के लोगों ने या तो हिंदू नाम रखकर या फिर जनजातीय समाज की महिलाओं से शादी करके आरक्षित सीट का फायदा उठाया और लगातार सत्ता पर काबिज रहे।  

गांव के बुजुर्गों के मुताबिक, साल 1970 में यहां 32 घर जनजातीय समुदाय के थे और 30 मुस्लिम परिवार रहते थे। लेकिन धीरे-धीरे धर्मांतरण का ऐसा खेल चला कि अब गांव के 1,760 मतदाताओं में सिर्फ 90 ईसाई हैं, बाकी सभी मुस्लिम हो चुके हैं और आदिवासी तो कोई रहा ही नहीं, जिसके लिए वो सीट आरक्षित है। लेकिन, धर्म बदल लेने के बाद भी अधिकतर लोग अब भी कागज़ों पर आदिवासी बने हुए हैं और तमाम सरकारी लाभ ले रहे हैं।

गांव के वर्तमान सरपंच दुबराज, देखने में ये हिंदू नाम लगता है, लेकिन असल में वह मुस्लिम हैं। उनके पिता प्रसन्न राम भी मुस्लिम बन चुके हैं और अब उनका नाम बारिस अली है। हालांकि, वह आज भी खुद को प्रसन्न राम के तौर पर पेश करते हैं। 1999 में यह सीट आरक्षित हुई, लेकिन तब से लेकर अब तक 15 साल तक बारिस अली के परिवार के लोग सरपंच रहे, जबकि बाकी 10 साल जनजातीय नाम वाले मुस्लिमों ने शासन किया। 

इस बार चुनाव में भी बारिस अली अपनी पत्नी जयमुनी बाई को मैदान में उतार रहा है, जबकि उपसरपंच के लिए अपनी बेटी शगुफ्ता को खड़ा कर रहा है। जब्बार ने चार निकाह किए, जिनमें से एक सुमंती बाई को सरपंच बनाया, जबकि अहमद ने मार्शेला एक्का से शादी कर उसे चुनाव जितवाया। तो क्या ऐसे में इस सीट से जनजातीय आरक्षित होने का दर्जा छीन नहीं लिया जाना चाहिए? 

यही नहीं, धर्मान्तरण के बढ़ते प्रभाव के कारण आदिवासियों का ये गाँव अपराध की चपेट में भी आ गया और गौतस्करी यहाँ का मुख्य धंधा बन गया। जिन पशुओं को जनजाति समूह के लोग अपने परिवार का हिस्सा मानते थे, उन्हें काटकर बांग्लादेश तक भेजा जाने लगा और अवैध गतिविधियां शुरू हो गईं। 

जशपुर के एसपी शशि मोहन सिंह के मुताबिक, पुलिस के लिए यह गांव नो-एंट्री जोन था। पुलिस जब भी यहां जाने की कोशिश करती, उस पर हमला कर दिया जाता था। वोट बैंक की सियासत के कारण संभवतः पुलिस के भी हाथ बंधे हुए थे, लेकिन 2024 में छत्तीसगढ़ में सत्ता परिवर्तन हुआ और मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के हाथों में कमान आई, जो खुद आदिवासी समुदाय से आते हैं। इसके बाद उसी साल ऑपरेशन शंखनाद शुरू किया गया, और इसके तहत पुलिस ने गौतस्करों पर सख्त कार्रवाई शुरू कर दी। हालाँकि, गाँव तब तक जनजाति शुन्य हो चुका था। 

बस्तर में आदिवासियों का बड़े पैमाने पर धर्मान्तरण :

छत्तीसगढ़ के ही बस्तर में धर्मांतरण का एक बड़ा हैरतअंगेज़ पैटर्न देखने को मिला था। यहाँ के एक संगठन सर्व आदिवासी समाज ने एक गोपनीय रिपोर्ट का हवाला देते हुए दावा किया है कि, अकेले बस्तर में 66000 आदिवासियों को बरगलाकर उनका धर्मान्तरण कर दिया गया है। सर्व आदिवासी समाज का कहना है कि बीमारी से ठीक करने के नाम पर, तो कभी आर्थिक मदद के नाम पर, कभी दूसरी चीज़ों से बरगलाकर भोले-भाले आदिवासियों का धर्मान्तरण कराया जा रहा है। इसमें अधिकतर NGO और मिशनरीज़ का हाथ है। संगठन ने चेतावनी भी दी है कि यदि इन्हे नहीं रोका गया, तो व्यापक आंदोलन किया जाएगा। हालाँकि, सरकार या नेताओं द्वारा इस पर कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं आई है। 

मध्य प्रदेश में भी अवैध धर्मान्तरण का खेल :

जनजाति समुदाय की कम साक्षरता का लाभ उठाते हुए अक्सर लोग उन्हें बरगला लेते हैं और फिर शुरू होता है धर्मांतरण का खेल। फ़रवरी 2025 में ही ऐसा एक मामला मध्य प्रदेश के रायसेन से सामने आया था। जिसमे मिशनरियों पर भील आदिवासी समुदाय के धर्मांतरण के आरोप लगे थे। यहाँ जनजाति समुदाय के लोगों को धन और शिक्षा का लालच देकर ईसाई बनाया जा रहा था। जब कुछ संगठनों ने इसके लिए आवाज़ उठाई, तब 3 लोगों को गिरफ्तार किया गया था।

इसी प्रकार, फ़रवरी 2025 में मध्य प्रदेश के ही छत्तरपुर में अचानक तब हड़कंप मच गया, जब एक सरकारी स्कूल में आदिवासी बच्चों के नाम डेविड, जोसफ आदि देखने को मिले, लेकिन धर्म के कॉलम में हिन्दू ही लिखा था। पड़ताल करने पर पता चला कि जिले के रामगढ़ गाँव में दो चर्च बन चुके हैं और आदिवासी लोगों को चंगाई सभा के नाम पर उसमे बुलाया जाने लगा है, स्थिति ये हो गई थी कि आदिवासी बच्चे गणतंत्र दिवस और स्वतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्वों पर मिठाई लेने से भी इंकार करने लगे थे। दरअसल, भारतीय संविधान सबको अपने मुताबिक धर्म चुनने की और उसका पालन करने की अनुमति देता है, किन्तु इसका आधार छल तो नहीं होना चाहिए। जो मामले सामने आए हैं, वो धर्मांतरण के पीछे छुपे राष्ट्रांतरण की तरफ भी संकेत करते हैं, यानी धर्मान्तरण करते ही लोगों का भारत के प्रति प्रेम धीरे धीरे घटते हुए देखा गया है, जैसे गणतंत्र दिवस का लड्डू न लेने वाले बच्चे। 

झारखंड में छीनी जा रही आदिवासियों की जमीन :

बंगाल से सटा राज्य होने के कारण, झारखंड में भी बांग्लादेशी घुसपैठ का काफी प्रभाव देखने को मिलता है। यहाँ कई ऐसे मामले रिपोर्ट किए गए हैं, जहाँ समुदाय विशेष के लोगों ने आदिवासी महिलाओं से विवाह करके उनका धर्मान्तरण तो कर दिया, किन्तु सरकारी लाभ पाने के लिए दस्तावेज़ों में आदिवासी ही बने रहे। साथ ही आदिवासी महिलाओं की जमीनें तक हड़प ली।

झारखंड स्पेशल ब्रांच द्वारा कुछ साल पहले पुलिस मुख्यालय में एक रिपोर्ट भेजी गई थी, जिसमे हैरान कर देने वाले खुलासे थे। रिपोर्ट के अनुसार, प्रतिबंधित संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) के सदस्यों ने आदिवासी लड़कियों से शादी कर संथाल परगना में 10 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन खरीदी है। जबकि झारखंड में CNT कानून लागू है, जिसके अनुसार एक ही थाना क्षेत्र के आदिवासी आपस में जमीन की खरीद-बिक्री कर सकते हैं। किन्तु इसके बावजूद कट्टरपंथी संगठन PFI का दायरा वहां बढ़ता ही जा रहा है।

भाजपा सांसद समीर उरांव का कहना है कि PFI के सदस्य अपनी आदिवासी पत्नी के दस्तावेज में पति का नाम न दिखाकर पिता का नाम दर्ज कराते हैं। इससे उसकी जमीन का मालिक, उसका गैर आदिवासी पति बन जाता है। जबकि ये CNT कानून के तहत निषेध है। ये खतरा सिर्फ आदिवासियों के लिए नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिए है, क्योंकि PFI का मिशन 2047 तक भारत को इस्लामी शासन के अधीन लाना है। बिहार पुलिस द्वारा फुलवारी शरीफ में की गई छापेमारी में बाकायदा इसके दस्तावेज़ मिले थे।

झारखंड में कुल 81 विधानसभा सीटें हैं, जिसमे से 28 सीटें जनजाति समुदाय के लिए आरक्षित हैं। वहीं, ग्राम पंचायत में इनकी संख्या और भी अधिक हो जाती है। यहाँ भी छत्तीसगढ़ जैसा ही खेल चल रहा है, जहाँ समुदाय विशेष के लोग आदिवासी महिलाओं से शादी करके, आरक्षित सीट से उन्हें चुनाव लड़ाते हैं और फिर आदिवासी-मुस्लिम ध्रुवीकरण का लाभ उठाकर सत्ता तक पहुंचते हैं।

बीते लोकसभा चुनाव (2024) में ही बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने मरियम मरांडी को राजमहल सीट से मैदान में उतारा था, जो कि आदिवासी के लिए आरक्षित है। इन मरियम मरांडी के पति का नाम मोहम्मद अब्दुल समीम है। अब या तो अब्दुल समीम ये कहें कि उन्होंने निकाह के लिए मरियम का धर्मान्तरण नहीं कराया, क्योंकि बिना धर्मान्तरण के इस्लाम में निकाह को जायज माना ही नहीं जाता। अब्दुल खुद तो इस सीट से चुनाव नहीं लड़ सकते थे, क्योंकि ये आरक्षित है, ऐसे में हो सकता है कि उन्होंने मरियम को आगे कर दांव चला हो।

जब लोकसभा में ये स्थिति है, तो छोटे स्तर पर क्या हालात होंगे, ये समझा जा सकता है। छोटे गाँव-कस्बों की तो खबर भी बाहर नहीं आती होगी। 

झारखंड में आदिवासियों की संख्या क्यों घटी?

ये मुद्दा हाल ही में झारखंड हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक गरमाया रहा था, हाई कोर्ट के एक्टिंग चीफ जस्टिस सुजीत नारायण प्रसाद और जस्टिस एके राय ने दानिश डेनियल नामक एक याचिकाकर्ता की PIL पर सुनवाई करते हुए कहा था कि झारखंड का निर्माण इसलिए किया गया था, ताकि आदिवासी हितों की रक्षा की जा सके, किन्तु स्थिति देखकर लगता है कि केंद्र सरकार बांग्लादेशी घुसपैठ को रोकने में दिलचस्पी ही नहीं ले रही है। 

याचिकाकर्ता ने कहा था कि, "संथाल परगना क्षेत्र में अनुसूचित जनजातियों की आबादी में वर्ष 1951 में 44.67% थी, जबकि वर्ष 2011 में यह 28।11% रह गई, जबकि मुस्लिम आबादी 9% से बढ़कर 22.73% हो गई है।'' याचिकाकर्ता ने स्पष्ट कहा था कि बांग्लादेशी घुसपैठिए झारखंड में फर्जी तरीके से आधार कार्ड और वोटर ID बनवा रहे हैं, भोली-भाली आदिवासी लड़कियों से विवाह कर उनकी जमीनें हड़प रहे हैं। इस याचिका पर पहले हाई कोर्ट ने राज्य की हेमंत सोरेन सरकार से जवाब माँगा, तो झारखंड सरकार ने कह दिया कि कोई घुसपैठ नहीं हुई है, डेमोग्राफी चेंज के दावे निराधार हैं।

 हालाँकि, केंद्र ने कोर्ट में हलफनामा देते हुए कहा था कि झारखंड में बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी घुसपैठ हुई है और केंद्र सरकार ने भी वही आंकड़े अपने शपथ पत्र में दिए थे, जो याचिकाकर्ता दानिश ने दिए। इसके बाद HC ने सोरेन सरकार को निर्देश दिए कि वो एक फैक्ट फाइंडिंग समिति के लिए नाम सुझाए, जो झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ की जांच करेगी, क्योंकि यदि घुसपैठ नहीं हुई है तो, फिर आदिवासी आबादी क्यों घटी? हालाँकि, सोरेन सरकार नाम देने के बजाए सुप्रीम कोर्ट पहुँच गई और वहां कपिल सिब्बल ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगवा दी। ऐसे में ये मामला फिर से ठंडे बस्ते में चला गया।   

आदिवासी समुदाय कर रहा डी-लिस्टिंग की मांग :

इन तमाम खतरों को आदिवसी समुदाय का बुद्धिजीवी वर्ग समझ रहा है और उसने इसका एक उपाय भी निकाला है, डी-लिस्टिंग। दरअसल, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15(4), सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान करने की अनुमति देता है, अनुच्छेद 16(4) सरकारी नौकरियों में इन वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान करता है। अनुच्छेद 330 और 332 विधानसभा और लोकसभा सीटों में आरक्षण की अनुमति देते हैं। वहीं, अनुच्छेद 341 और 342, राष्ट्रपति को किसी भी जाति को अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति घोषित करने की शक्ति देते हैं। 

किन्तु इनमे धर्म के आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। यही कारण है कि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ से लेकर झारखंड तक के लोग डी-लिस्टिंग की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि आदिवासी समुदाय के जिन लोगों ने लालच में आकर या किसी अन्य कारण से धर्मान्तरण कर लिया है, उनका नाम आदिवासी सूची से हटा दिया जाए, ताकि उन लोगों को लाभ मिल सके, जो वास्तव में पिछड़े हुए हैं। हालाँकि, इस मुद्दे पर आदिवासियों को अधिक राजनितिक समर्थन नहीं मिल पाता, क्योंकि, जो संस्थाएं धर्मांतरण आदि में लगी हैं, उनकी गहरी राजनितिक पैठ है। वो बिना राजनितिक रसूख के इतना कुछ कर भी नहीं सकती थी, और वोट बैंक भी इसका एक कारण है, जो सियासी दल खोना नहीं चाहते। इसलिए आदिवासियों की आवाज़ दबकर रह जाती है। 

 

 

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