
2022 के आखिर से दुनियाभर की नज़र भारत पर टिकी हुई थी, क्योंकि इतिहास में पहली बार कोई भारतीय दुनिया का दूसरा सबसे दौलतमंद शख्स बना था और तेजी से पहले पायदान की तरफ बढ़ रहा था। लेकिन, जनवरी 2023 की शुरुआत में ही भारत के बाजार और सियासत में ऐसा तूफ़ान उठा कि दुनिया के सबसे रईस व्यक्ति बनने का गौरव प्राप्त करने के लिए बढ़ रहा वो भारतीय, टॉप-20 से भी बाहर हो गया। इस रिपोर्ट से पहले, फोर्ब्स रियल-टाइम बिलियनर लिस्ट (Forbes Real-Time Billionaires List) भारतीय कारोबारी को दूसरे स्थान पर, वहीं, ब्लूमबर्ग बिलियनेयर्स इंडेक्स (Bloomberg Billionaires Index) तीसरे स्थान पर दिखा रहा था।
ये भारतीय थे, अडानी समूह के मालिक गौतम अडानी और उनके साम्राज्य की बुनियाद हिलाने वाली थी एक अमेरिकी शार्ट सेलर कंपनी हिंडनबर्ग, जिसने अडानी के साथ भारतीय निवेशकों के भी हज़ारों करोड़ स्वाहा कर दिए थे। इस शार्ट सेलर कंपनी ने एक रिपोर्ट से भारतीय बाजार में दहशत का वो माहौल पैदा कर दिया था कि, दिग्गज निवेशकों का भरोसा भी अडानी समूह पर से डगमगाने लगा और वे सब अपनी बचत सुरक्षित करने में लग गए। इसका नतीजा ये हुआ कि अडानी समूह के शेयरों में बिकावली शुरू हो गई और कीमतें गिरने लगी। इससे अडानी समूह और उसके निवेशकों को नुकसान तो हुआ, लेकिन खुद रिसर्च करके रिपोर्ट जारी करने का दावा करने वाली हिंडनबर्ग को इस मेहनत से क्या मिला ?
हिंडनबर्ग कोई सरकारी संस्था तो थी नहीं, जो उसे इस काम के लिए सरकार से वेतन या अनुदान मिलता, और न ही कोई NGO, जो बिना पैसों के समाज/बाजार में चल रही अवैध और अनुचित गतिविधियों का पर्दाफाश कर लोगों को जागरूक करने का काम करती हो। ये एक अमेरिकी व्यक्ति नाथन एंडरसन द्वारा शुरू की गई एक शार्ट सेलर फर्म थी, जो बाजार में उथलपुथल मचाकर ही मुनाफा कमाती थी, और अडानी प्रकरण में भी इसने यही किया।
शार्ट सेलिंग में, सबसे पहले किसी ब्रोकर से शेयर उधार लिए जाते हैं, जैसे हिंडनबर्ग ने रिपोर्ट जारी करने से पहले अडानी के शेयर उधर लिए। इसके बाद इन शेयरों को मौजूदा बाजार कीमत पर बेच दिया जाता है और एक पोजीशन बना ली जाती है। अब शुरू होता है असली खेल, या तो शार्ट सेलर ये उम्मीद करता है कि शेयर के भाव गिरेंगे, या फिर वो कुछ ऐसा करता है, जिससे शेयर के भाव गिर जाएं।
हिंडनबर्ग ने दूसरा रास्ता अपनाया, वो रिपोर्ट अडानी के शेयर के भाव गिराने के लिए ही थी। फिर जब, शेयर सस्ते हो जाते हैं, तो उन्हें कम दामों पर खरीदकर ब्रोकर को उसके शेयर वापस लौटा दिए जाते हैं। अब उधर लेकर बेचे गए शेयर और कम कीमत पर ख़रीदे गए शेयर के बीच जो अंतर होता है, वही शार्ट सेलर का मुनाफा होता है। यानी हिंडनबर्ग ने पहले ही तमाम मोहरे बिछा लिए थे कि उसकी रिपोर्ट खलबली पैदा करेगी, उससे शेयर के भाव गिरेंगे और फिर वो अपनी शार्ट पोजीशन से मुनाफा कमा सकेगा।
हिंडनबर्ग की रिपोर्ट में आरोप था कि अडानी समूह ने अपनी 7 लिस्टेड कंपनियों में हेरफेर करके 100 अरब डॉलर कमाए। अडानी समूह द्वारा इन आरोपों को निराधार बताया गया। किन्तु, इस रिपोर्ट के बाद देश के राजनीतिक हलकों में तूफान सा मच गया था। पूरी भारतीय विपक्ष ने इस रिपोर्ट को हाथों-हाथ लिया और इसे राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया। राहुल गांधी और अन्य विपक्षी नेताओं ने संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गौतम अडानी की तस्वीरें लेकर प्रदर्शन किया। विपक्षी नेताओं ने सरकार से जवाब मांगा कि उनके और अडानी के बीच क्या संबंध हैं? विपक्ष को हिंडनबर्ग पर काफी भरोसा था, रिपोर्ट भी संसद सत्र शुरू होने से कुछ दिन पहले ही आई थी, सो मुद्दा मिल चुका था। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के कारण भारतीय संसद कई दिनों तक ठप रही, और कई महत्वपूर्ण कामकाज रोक दिए गए। यह स्थिति ऐसी थी कि सरकार और विपक्ष के बीच तकरार बढ़ गई, जिससे संसद की कार्यवाही पूरी तरह प्रभावित हुई।
विपक्ष का कहना था कि अडाणी ग्रुप को सरकार का संरक्षण प्राप्त है और सरकार अडानी पर कार्रवाई नहीं कर रही। विपक्ष को हिंडनबर्ग के आरोपों पर पूरा भरोसा था, और मामला देश की प्रतिष्ठा से भी जुड़ा हुआ था। जिसके बाद सरकार ने मामले को सुप्रीम कोर्ट में भेज दिया। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर लंबी सुनवाई चली, SEBI से जांच रिपोर्ट मांगी गई, किन्तु कोई ठोस साक्ष्य नहीं पाया गया, और हिंडनबर्ग के आरोपों को खारिज कर दिया गया। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हिंडनबर्ग ने जिन आरोपों को उठाया था, उनका कोई ठोस आधार नहीं था। किन्तु तब तक, अडानी समूह की कंपनियों को 150 अरब डॉलर का नुकसान हो चुका था और खुद अडानी की नेटवर्थ में 6।63 लाख करोड़ रुपये की गिरावट दर्ज की जा चुकी थी। कभी धनकुबेरों के मामले में दूसरे पायदान पर बैठे अडानी अब टॉप-20 से बाहर हो चुके थे।
अब अमेरिका में सत्ता परिवर्तन होते ही, हिंडनबर्ग रिसर्च ने अपने बंद होने का ऐलान कर दिया है। कंपनी के संस्थापक नाथन एंडरसन ने खुद यह जानकारी दी, और उनका कहना था कि यह निर्णय काफी सोच-समझ कर लिया गया है। हालांकि, एंडरसन ने हिंडनबर्ग रिसर्च के बंद होने के पीछे का कोई विशेष कारण नहीं बताया।
रॉयटर्स के अनुसार, एंडरसन ने अपने बयान में कहा कि यह निर्णय परिवार, दोस्तों और अपनी टीम से लंबी बातचीत के बाद लिया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि इस कंपनी को बंद करने का कारण कोई बड़ा व्यक्तिगत मुद्दा नहीं है, बल्कि उन्होंने इसे अपनी संतुष्टि और शांति के लिए किया है। एंडरसन का कहना था कि हिंडनबर्ग को बंद करने के बाद वह अपने परिवार के साथ समय बिताने, अपनी रुचियों को पूरा करने और अपनी टीम को आगे बढ़ाने की योजना पर ध्यान केंद्रित करेंगे। हालाँकि, हिंडनबर्ग के कुछ सदस्य अब भी स्वतंत्र रूप से रिसर्च का काम जारी रखने वाले हैं, मतलब आशंका है कि अब इस तरह की रिपोर्ट्स किसी नए नाम से सामने आ सकती हैं, जिनसे भारतीयों को सतर्क रहने की आवश्यकता है।
यह बंद होना निश्चित रूप से कई सवालों को जन्म देता है, खासकर उस रिपोर्ट की वजह से, जो भारत में इतने बड़े राजनीतिक और आर्थिक हलचल का कारण बनी। ये मुद्दा इतना उछला था कि यदि गलती से भी हिंडनबर्ग के कुछ आरोप सही निकल जाते, तो हो सकता था कि 2024 लोकसभा चुनाव के नतीजे कुछ और होते। क्योंकि, भारत में सत्ता बदलने के लिए अरबों डॉलर देने का ऐलान करने वाले अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरोस ने भी अडानी-हिंडनबर्ग मुद्दे पर सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जवाब माँगा था और उनके रिश्तों पर सवाल उठाए थे।
हो सकता है कि, इस रिपोर्ट के पीछे, सोरोस-बाइडेन और एंडरसन की तिकड़ी का कोई उद्देश्य छिपा हो। हालाँकि, इन आरोपों की भी पुष्टि तो नहीं हुई है, किन्तु शार्ट सेलर कंपनी के बंद होने की टाइमिंग को लेकर सबसे बड़ा सवाल ये है कि, क्या हिंडनबर्ग बंद होने के पीछे अमेरिका के सत्ता परिवर्तन का कोई कनेक्शन है ? क्या बाइडेन प्रशासन हिंडनबर्ग को समर्थन दे रहा था ? इसलिए डोनाल्ड ट्रम्प के हाथों सत्ता आते ही एंडरसन ने अपना बोरिया बिस्तर समेट लिया। क्योंकि, ट्रम्प और मोदी के रिश्ते काफी घनिष्ठ माने जाते हैं।
हिंडनबर्ग की रिपोर्ट का असर सिर्फ अडाणी ग्रुप पर ही नहीं, बल्कि पूरे भारतीय बाजार पर पड़ा था। निवेशकों ने भारी नुकसान उठाया, और उनका भारतीय विश्वास बाजार से हिल गया। राजनेताओं ने भी सच जानने का प्रयास किए बगैर, एक विदेशी फर्म पर भरोसा जताया और सड़क से संसद तक प्रदर्शन किए, वो भी तब जब मामला सुप्रीम कोर्ट में भेजा जा चुका था और जांच शुरू हो चुकी थी। तब शांत रहकर इसके परिणाम आने की प्रतीक्षा होनी चाहिए थी, जो नहीं हुई, बल्कि निवेशकों में और डर पैदा करने वाले बयान दिए गए।
AAP नेता संजय सिंह ने कहा था कि ''अडानी का पासपोर्ट जब्त कर लेना चाहिए, वरना वो देश छोड़कर भाग सकते हैं।'' देश के नेता विपक्ष और कांग्रेस के प्रधानमंत्री उम्मीदवार राहुल गांधी ने कहा कि ''अडानी को अरेस्ट कर लेना चाहिए।'' इससे निवेशक और भयभीत हुए और आने-पौने दाम पर शेयर बेचकर अपनी बचत सुरक्षित करने का प्रयास करने लगे। लेकिन अंत में साबित कुछ भी न हुआ और अब एंडरसन खुद अपनी दूकान बंद कर चुके हैं।
लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी की विदेश यात्राएं अक्सर विवादों में घिरी रहती हैं। कांग्रेस में अपने जीवन के 50 साल बिताने वाले गुलाम नबी आज़ाद भी कह चुके हैं कि गांधी परिवार के कई विदेशी कारोबारियों से रिश्ते हैं, जिनमे से कई अवांछित हैं और गांधी परिवार के लोग विदेशों में जाकर उनसे मिलते रहते हैं। आज़ाद ने कहा था कि उस परिवार के साथ मेरे अच्छे संबंध थे, इसलिए मैं अधिक नहीं बोलूंगा।
अब आज़ाद के बयान पर अगर गौर किया जाए, तो सवाल उठते हैं कि वो कौनसे विदेशी कारोबारी हैं, जिनसे गांधी परिवार के संबंध हैं? और क्या वे कारोबारी भारत के लिए हितकारी हैं या भारत के शत्रु हैं ? क्योंकि राहुल गांधी तो अमेरिका जाकर, भारत विरोधी सांसद इल्हाना उमर से भी मिल चुके हैं। राहुल, डोनाल्ड लू से भी मिले, जो फर्जी आंदोलन खड़े करके सरकारों का तख्तापलट करने के लिए जाने जाते हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश में इमरान खान और शेख हसीना की सरकार गिराने का आरोप लू पर ही है। इसके अलावा राहुल कई बार ऐसे लोगों के साथ भी देखे गए हैं, जो अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरोस से जुड़े हुए हैं। ये वही सोरोस हैं, जो दुनियाभर में राष्ट्रवाद से लड़ने के लिए करोड़ों डॉलर देने का ऐलान कर चुके हैं।
राहुल गांधी ने हिंडनबर्ग से मिलकर अदानी और भारत सरकार को गिराने की साज़ीश रचा था। pic.twitter.com/0VnRpdYopQ
— Deshi boy (@THEANYSENA) April 24, 2025
अडानी मामले में भी देश ने देखा है, सबसे अधिक मुखर राहुल गांधी ही थे, जबकि केस सुप्रीम कोर्ट में था, फिर भी वे जगह जगह अडानी के पोस्टर लिए घुमते नज़र आते थे। लेकिन अब खुलासा हुआ है कि अडानी को इस तरह घेरने का चक्रव्यूह राहुल गांधी ने ही विदेशी फर्म हिंडनबर्ग के साथ मिलकर रचा था। रिपोर्ट भी संसद सत्र के ठीक पहले आई, और पूरा सत्र विपक्ष के अडानी-अडानी के शोर में व्यर्थ हो गया, जैसे इसकी पहले से प्लानिंग की गई हो। दुनिया की सबसे नामचीन ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद (इजराइल) ने अपने एक गुप्त ऑपरेशन के बाद दावा किया है कि, वो राहुल गांधी ही थे, जिसने हिंडनबर्ग के साथ मिलकर अडानी निशाना बनाया, जिसमे हज़ारों भारतीयों के लाखों करोड़ डूब गए।
स्पुतनिक इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, मोसाद ने साफ कहा है कि यह पूरी साजिश अडानी और पीएम मोदी को कमजोर करने के लिए की गई थी। और ये संसद से लेकर सड़क तक और मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक दिखा भी, कि कैसे अडानी के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीरें लहराई गईं, मोडनी जैसे नाम दिए गए। जबकि, कांग्रेस नेताओं के साथ भी अडानी की तस्वीरें हैं, कई कांग्रेस सरकारों ने अडानी के साथ काम किया है और अब भी कर रही हैं। राहुल गांधी के जीजा रॉबर्ट वाड्रा भी अडानी के साथ तस्वीरों में नज़र आते हैं। लेकिन इस तरह पूरा नैरेटिव इस तरह सेट करने की कोशिश की गई कि सरकार ने सबकुछ अडानी को दे दिया है। ताकि, चुनावों में इसका लाभ उठाकर सत्ता परिवर्तन किया जा सके। हालाँकि, अडानी पर लगा एक भी आरोप सुप्रीम कोर्ट में साबित नहीं हुआ और पूरे विपक्ष को मुंह की खानी पड़ी। लेकिन फिर भी देश बेच दिया वाला नैरेटिव जमकर चलाया जा रहा है।
इसको एक उदाहरण के जरिए समझते हैं। सरकार ने किसी एयरपोर्ट के लिए टेंडर निकाला, अडानी समूह ने टेंडर भरा, बोली जीती और कुछ समय के लिए वो एयरपोर्ट चलाने के लिए लिया। सरकार को पैसा मिला, जमीन और एयरपोर्ट सरकार के ही रहे, मगर इससे देश बिक गया। और देश की 9 लाख एकड़ जमीन सरकार के कब्जे से निकलकर वक्फ की हो गई, सरकार को न एक रुपया मिला और न ही अब उस जमीन पर सरकार का नियंत्रण रहा, बदले में क्या मिला ? कांग्रेस को एकतरफा मुस्लिम वोट ? ये सवाल हर विवेकशील भारतीय नागरिक अपने आप से पूछ सकता है कि देश किसने बेचा ?
अब सवाल उठता है कि इन ऊलजलूल आरोपों और नेताओं द्वारा इस रिपोर्ट को बढ़ावा देने के कारण जो नुकसान भारतीय निवेशकों को हुआ, उसकी भरपाई कौन करेगा? हिंडनबर्ग रिसर्च के बंद होने के बाद यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। एक विदेशी कंपनी ने बिना ठोस साक्ष्य के किसी भारतीय कारोबारी समूह के खिलाफ रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसका परिणाम भारतीय निवेशकों के लिए भारी नुकसान में हुआ। इस घटनाक्रम ने यह भी दिखाया कि कैसे राजनीति और विदेशी रिपोर्टें मिलकर एक देश की आर्थिक स्थिति को प्रभावित कर सकती हैं।
निश्चित रूप से, हिंडनबर्ग रिसर्च का बंद होना और इसके बाद की घटनाएं एक बड़े सवालिया निशान के रूप में खड़ी हैं। इसने भारतीय निवेशकों के बीच असुरक्षा और संदेह का माहौल पैदा किया है। हालांकि एंडरसन अब अपनी नई दिशा की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन भारतीय निवेशक अभी भी यह सोच रहे हैं कि उनके नुकसान की जिम्मेदारी कौन लेगा और क्या इस तरह की घटनाओं से भविष्य में कोई सीख ली जाएगी? क्योंकि किसी नए नाम से या किसी अन्य तरीके से भारत को टारगेट करने का प्रयास आगे भी हो सकता है।