अपने ही देश में न्यायपालिका से हार रहा भारत का बहुसंख्यक समाज..?

हज़ारों साल पहले हुए श्री राम के अस्तित्व और उनके जन्म के सबूत माँगने वाली सुप्रीम कोर्ट के सुर वक्फ के नाम पर अचानक से बदल गए हैँ. प्रधान न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना ने कहा है कि वक्फ बोर्ड 300–400 साल पुरानी संपत्तियों के कागज कहाँ से लाएगी. क्या जज साहब से ये नहीं पुछा जाना चाहिए कि बहुसंख्याकों से राम के सबूत मांगते हुए उन्हें ये विचार नहीं आया था?

अपने ही देश में न्यायपालिका से हार रहा भारत का बहुसंख्यक समाज..?

भारतीय न्यायपालिका पर लगे भेदभाव के गंभीर आरोप

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Highlights

  • सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता पर उठे सवाल।
  • सुप्रीम कोर्ट में वक्फ अधिनियम की सुनवाई।
  • क्या दबाव में है भारत की न्यायपालिका।

नई दिल्ली : पूजास्थल अधिनियम और वक्फ अधिनियम इस समय सुप्रीम कोर्ट में हैं। जब ये दोनों कानून बने थे और देश की बहुसंख्यक आबादी को न्याय मांगने से ही रोक दिया गया था, तब तक सुप्रीम कोर्ट खामोश था और वक्फ की जमीनें बढ़ती जा रही थी। किन्तु जैसे ही आम आदमी की जमीन, उसके खेत-खलिहान, आदिवासियों  के जंगल बचाने के लिए सरकार ने वक्फ में संशोधन किया, सुप्रीम कोर्ट में याचिकाओं की भीड़ लग गई और मानणिया अदालत उन पर सुनवाई कर, राहत देने के बारे में भी विचार करने लगी। जिसके बाद आम जन के मन में सवाल उठने लगा है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय वाकई निष्पक्ष है? क्योंकि कई मामलों में एक समुदाय विशेष के प्रति सुप्रीम कोर्ट का विशेष झुकाव देखने को मिला है। 

अब ये झुकाव, न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की वजह से है या न्यायपालिका में अंदर तक पैठ कर चुकी राजनीति की वजह से ? इसका कोई स्पष्ट जवाब तो नहीं है, लेकिन इसमें पिस आम जनता रही है, जो न्याय की आस लेकर जिला अदालत से लेकर सर्वोच्च अदालत तक अपनी एड़ियां घीसती हुईं मर जाती है। वहीं दूसरी तरफ कुछ विशेष लोगों को इतनी छूट मिल जाती है कि वो अरेस्ट वारंट जारी होने के बाद भी, जज साहब से फ़ोन पर ही जमानत ले लेते हैं। कभी आधी रात को जज को उठाकर कुर्सी पर बिठा देते हैं। इस तरह के कई मामले सोशल मीडिया पर लोग उठा रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। 

तीस्ता जावेद सीतलवाड़ का मामला :

कांग्रेस की करीबी मानी जाने वालीं तीस्ता जावेद सीतलवाड़, गुजरात दंगों में झूठे सबूत गढ़ने और गवाहों को प्रभावित करने के मामले में जेल जाने ही वाली थी। तमाम तथ्य देखने और लंबी सुनवाई करने के बाद गुजरात हाईकोर्ट ने उनकी जमानत खारिज कर दी थी। लेकिन, इसी दौरान आनन् फानन में दिल्ली में बैठे कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट के एक जज को फोन किया और उन जज साहब ने फोन की सुनवाई पर ही तीस्ता को अग्रिम जमानत दे दी। भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में आज तक किसी अभियुक्त की न फोन पर सुनवाई हुई थी। क्या ये नहीं पुछा जाना चाहिए कि, आज तक किसी अन्य मुजरिम को सुप्रीम कोर्ट ने फोन पर जमानत क्यों नहीं दिया ? यह सुविधा सिर्फ एक मुजरिम तीस्ता जावेद सीतलवाड़ को क्यों दी गई ? 

आतंकी याकूब मेमन के लिए रात को खुली अदालत :

मुंबई  बम ब्लास्ट के मास्टरमाइंड और आतंकवादी याकूब मेमन के लिए रात को 2:00 बजे प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट के एक जज के घर पर जाते हैं और वह जज रात को 2 बजे ही सुनवाई कर देता है और बकायदा भारत सरकार के वकील को भी रात को 2:00 बजे बुलाया जाता है और 4 घंटे तक सुनवाई चलती है। यही सुविधा क्या किसी अन्य भारतीय नागरिक को न्याय देने के लिए इस्तेमाल की गई? आम आदमी की चप्पलें घिस जाती हैं, जिला अदालत से उच्च न्यायालय पहुँचते-पहुँचते, लेकिन न्याय नहीं मिल पता, फिर क्यों एक आतंकी के लिए ही रात को 2:00 बजे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खोला गया? 

अदालत ने दंगाइयों के पोस्टर हटवाए :

8 मार्च 2020 को रविवार था, CAA का विरोध चरम पर था, शाहीन बाग की तर्ज पर लखनऊ में भी एक और शाहीन बाग बनाने वाले दंगाइयों के फोटो वाले पोस्टर योगी सरकार ने लगवा दिए थे। ताकि जिसने भी सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाया हो, उससे भरपाई की जाए। लेकिन, रविवार के दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के लखनऊ बेंच ने स्वतः संज्ञान लेते हुए लखनऊ प्रशासन को अदालत में तलब किया और बकायदा 4 घंटे बहस चली क्या दंगाइयों का पोस्टर लगाना जायज है ? क्या अदालत से ये नहीं पुछा जाना चाहिए कि क्या सड़कें ब्लॉक करके आम जनता को परेशान करना जायज है? क्या सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाना, आग लगाना जायज है ? और अगर सरकार इन जैसे उपद्रवियों से वसूली करना चाहती है, तो अदालतें क्यों रोकती हैं।  

सिख दंगों पर सुनवाई, लेकिन कश्मीरी हिन्दू नरसंहार पर नहीं :

1984 के सिख दंगों का मामला सुप्रीम कोर्ट सुनती है और दोषियों को सजा भी मिलती है। लेकिन बार बार कश्मीरी हिन्दुओं की अर्जी ये कहकर ख़ारिज कर दी जाती है कि ये बहुत पुराना मामला है, अब इसमें सबूत नहीं मिलेंगे। क्या अदालत बताएगी कि, 1990 में हुआ कश्मीरी हिन्दुओं का नरसंहार, 1984 के सिख नरसंहार से पुराना कैसे हुआ ? हज़ारों-लाखों पीड़ित कश्मीरी हिन्दुओं को अब तक इंसाफ नहीं मिला है और वे आज भी अपनी पीड़ा दुनिया के सामने रखने के लिए छटपटा रहे हैं। 

वक्फ अधिनियम के नाम पर गाँव के गाँव कब्जा कर लिए गए, लेकिन अदालत ने कभी उसका स्वतः संज्ञान नहीं लिया। विष्णु शंकर जैन और अश्विनी वैष्णव जैसे वरिष्ठ वकीलों ने बताया है कि जब वे कांग्रेस के वक्फ कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे, तो उन्हें कहा गया था कि आप सीधे SC क्यों आ गए, हाई कोर्ट जाइए। और वहीं जब लोकसभा, राज्यसभा में पास होने के बाद, JPC चर्चा के बाद, राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद वक्फ कानून में संशोधन हुआ है, तो सुप्रीम कोर्ट ने उसके खिलाफ याचिकाएं स्वीकार कर सुनवाई शुरू कर दी है, उन्हें SC ने हाईकोर्ट जाने के के लिए क्यों नहीं कहा?  ये दोहरा रवैया क्यों ?

3 साल हो गए, कन्हैयालाल, उमेश कोल्हे जैसे लोगों का क़त्ल हो गया, नूपुर शर्मा गुमनामी में चली गई। लेकिन पता नहीं क्यों, अदालत अब तक ये नहीं बता सकी कि ज्ञानवापी में जो आकृति मिली थी, वो वाकई में शिवलिंग है या फव्वारा ? ये पता लगाने में ऐसी कौनसी NASA वाली तकनीक का इस्तेमाल होना है, जो मामला अब तक अटका पड़ा है। क्या न्यायपालिका किसी दबाव में है ?

जब भी न्यायपालिका कांग्रेस सरकार द्वारा बनाए गए पूजास्थल अधिनियम का मामला सुनती है, तो क्या उसके मन में ये सवाल नहीं उठना चाहिए कि ये कानून, काशी-मथुरा से लेकर हर वो जगह, जहाँ आक्रमणकारियों ने भारतीय संस्कृति को रौंदा है, उसे जायज ठहरने का काम करता है। क्या आक्रमणकारियों ने प्राचीन धरोहरों को मिटाकर सही किया था, जो उन्हें मिटा हुआ ही रहने दिया जाए और उनकी सच्चाई दबा दी जाए ? 

बंगाल में हर साल, अमूमन हर त्यौहार पर और चुनावों में हिन्दुओं को चुन-चुनकर निशाना बनाया जाता है। हर साल हिन्दू समुदाय, पड़ोस के असम, त्रिपुरा आदि राज्यों में शरण लेता है। सीबीआई जांच होती है, गवर्नर रिपोर्ट सौंपते हैं, लेकिन क्या कभी सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर इस पर सुनवाई की है ? केंद्र सरकार यदि बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगा भी दे, तो क्या विश्वास के साथ ये कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट उस फैसले को नहीं पलटेगी ? बीते महीने वकील विष्णु शंकर जैन ने मुर्शिदाबाद हिंसा के बाद सुप्रीम कोर्ट से बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने की अपील भी की है, लेकिन मामला ठंडे बस्ते में पड़ा है। 

वहीं, ये देखा गया है कि, यदि कपिल सिब्बल, प्रशांत भूषन, सलमान खुर्शीद और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे वकील कोई मामला लेकर आते हैं, तो उनकी तुरंत सुनवाई होती है। उत्तराखंड के हल्द्वानी में रेलवे की 29 एकड़ जमीन पर अतिक्रमणकारियों ने अवैध कब्जा कर लिया था, उत्तराखंड हाई कोर्ट ने तमाम तथ्य देखे और जमीन खाली कराने का आदेश दिया। लेकिन, फ़रवरी 2024 में जब नगर निगम का दस्ता और पुलिस टीम अतिक्रमण हटाने पहुंचे, तो वही कब्जेधारी, हमलवार बन गए और कर्मचारियों पर जानलेवा हमला कर दिया। 

आरोपियों को सजा दिलवाना तो दूर, प्रशांत भूषन और सलमान खुर्शीद जैसे वकील अतिक्रमणकारियों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए और उत्तराखंड हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगवा दी। SC ने सरकार को निर्देश दिया कि वो अतिक्रमणकारियों के पुनर्वास का इंतज़ाम करे, यानी अगर अपनी जमीन वापस चाहिए, तो पहले कब्जेधारियों को कहीं और बसाया जाए। क्या ये न्याय था, या फिर ये दरियादिली सिर्फ इसलिए दिखाई गई, क्योंकि कब्जेधारी एक विशेष वोट बैंक से संबंध रखते थे ? 

आम इंसान की जिंदगी गुजर जाती है, एक मकान बनाने में, और अतिक्रमणकारी इस तरह सरकारी जमीन पर कब्जा भी कर लेते हैं और वोट बैंक के लालची राजनेता उनका समर्थन कर उन्हें सरकार से आवास भी दिलवा देते हैं। 

वरिष्ठ अधिवक्ता, पूर्व सॉलिसिटर जनरल और हेग में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी देश का प्रतिनिधित्व करने वाले हरीश साल्वे ने 2014 में ही चेतावनी दे दी थी कि 'अब जब कांग्रेस 44 पर सिमट गई है, तो वे सरकार को अस्थिर करने के लिए अदालत का इस्तेमाल कर सकते हैं।' कांग्रेस ने लंबे समय तक देश पर शासन किया है, न्यायपालिका से लेकर अन्य सभी विभागों से वो भली-भांति परिचित है और उसके तमाम दांव-पेंच जानती है। ऐसे में ये सवाल उठना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस अदालत के माध्यम से सरकारी कार्यों में रोड अटकाने और सरकार को अस्थिर करने का प्रयास कर रही है। 

इसके कुछ उदाहरण भी हैं,  जब तक 370 लागू था, दलितों को वोटिंग और नौकरी का अधिकार नहीं था, तब तक इस अनुच्छेद के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में कोई सुनवाई नहीं हुई। किन्तु जैसे ही सरकार ने इसे ख़त्म किया, कांग्रेस समेत कई पार्टियां और नेता, सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचे, लंबी सुनवाई हुई, हालाँकि फैसला सरकार के पक्ष में रहा। 

वक्फ जब तक जमीनें हडपता रहा, तब तक इस कानून के खिलाफ कोई सुनवाई नहीं हुई। जबकि सुप्रीम कोर्ट खुद जानती है कि वक्फ ने अवैध तरीके से इलाहबाद हाई कोर्ट की भी जमीन हड़प ली थी, जिसे छुड़वाने में अदालत को भी पसीने आ गए थे। किन्तु जैसे ही उस वक्फ को न्याय के दायरे में लाया गया, सीधे सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को तैयार हो गया। 

 

वीडियो बनाकर कन्हैयालाल को मारने वाले दोनों आरोपियों को अभी तक सजा नहीं मिली, श्रद्धा वॉकर के 35 टुकड़े करने वाले आफताब को अभी तक दंड नहीं दिया गया। जबकि श्रद्धा के पिता अपनी बच्ची के लिए न्याय की आस लगाते हुए इसी साल दम तोड़ गए। उन्हें तो अपनी बेटी का अंतिम संस्कार करने का भी वक्फ नहीं मिला, क्योंकि, लाश के टुकड़ों को पुलिस ने सबूत बनाकर रखा था। ये तो वो मामले हैं, जिनमे आरोपी जुर्म कबूल चुके हैं, फिर भी उन्हें सजा नहीं हुई है। कई ऐसे मामले भी होंगे, जो सालों से चले आ रहे होंगे, क्योंकि उनके पास न तो कपिल सिब्बल, सिंघवी जैसे वकीलों को देने के लिए फीस है और न ही वे किसी ख़ास वोट बैंक से संबंध रखते हैं, जो राजनेता या वकील उनके लिए अदालतों में लड़ाई लड़ें।

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