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नई दिल्ली: भारत में जमीनी विवाद से जुड़े दो बड़े कानून इस समय सुप्रीम कोर्ट में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे है। पूजा स्थल अधिनियम (1991) और वक़्फ़ एक्ट (1954), दोनों पर असंवैधानिक होने के आरोप लग रहे हैं। याचिका मुख्य रूप से पूजा स्थल अधिनियम को लेकर दायर की गई है, जो मुगल आक्रांताओं द्वारा ध्वस्त की गई भारतीय धरोहरों को वापस पाने में रोड़ा है। साथ ही केंद्र सरकार द्वारा किए गए वक्फ संशोधन के बाद इसके खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल हो चुकी है, जिसमे कांग्रेस से लेकर तमाम विपक्षी दल और मुस्लिम संगठन, इस संशोधन का विरोध कर रहे हैं।
मजे की बात ये है कि, जब 2013 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने वक्फ को सुप्रीम कोर्ट से भी ऊपर खड़ा कर दिया था, तब अदालतों ने इस पर कोई ऊँगली नहीं उठाई और न ही इस पर चर्चा की जरुरत समझी, किन्तु अब जब वक्फ को न्यायपालिका के दायरे में लाया गया है, तो देश की सबसे बड़ी अदालत बिल पर बेहद गंभीर नज़र आ रही है और विरोध करने वालों को राहत देने पर भी विचार कर रही है। लेकिन इस कानून पर चर्चा के साथ वक्फ अधिनयम का भी जिक्र छिड़ सकता है, क्योंकि ये दोनों कानून अपने आप में विरोधाभासी प्रतीत होते हैं। एक तरफ यही सुप्रीम कोर्ट ने श्री राम के सबूत मांगे थे, कि वो हुए या नहीं? हुए तो इसी जगह हुए इसका क्या सबूत है? अब वही अदालत कह रही है कि, बेचारे वक्फ वाले 300-400 साल पुरानी वक्फ सम्पत्तियों के प्रमाण कहाँ से लाएंगे? क्या ये अदालत का दोहरा रवैया नहीं है ? एक बात और गौर करने लायक है, वो ये कि अयोध्या मामले में सबूत मांगने वाले वकील भी कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी ही थे और अब सबूत न दिखाने वाले वकील भी यही हैं।
अब ये फैसला देश की सबसे बड़ी अदालत के हाथों में है कि ये दोनों कानून जनता के हित में हैं या लोगों को संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।
भारत को आज़ाद हुए कुछ साल ही बीते थे, देश कत्लो गारत और गुलामी के जख्मों से उबर रहा था। उस समय देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने इस विचार का समर्थन किया कि पकिस्तान चले गए मुस्लिमों की संपत्ति, भारत में वक्फ को दे दी जाएगी। 1954 में पहली बार नेहरू सरकार ने वक़्फ कानून बनाया, लेकिन किन्ही कारणों से इसे निरस्त कर दिया गया और अगले ही साल 1955 में फिर से कुछ संशोधनों के साथ पेश किया गया। इस कानून के जरिए, भारत छोड़कर पाकिस्तान गए मुस्लिमों की संपत्ति यहाँ वक्फ बोर्ड को मिल गई, वहीं, पाकिस्तान से से अपनी जान बचाकर भारत आए हिन्दुओं-सिखों की जायदाद वहां के लोगों ने हड़प ली। कुल मिलकर इस बंटवारे में सबसे अधिक नुकसान गैर-मुस्लिमों का ही हुआ, जो अपना घर-बार छोड़कर विस्थापित हुए और उन्हें नई जिंदगी शुरू करने के लिए संघर्ष करना पड़ा।
इस समय (1955) तक देश के प्रथम गृह मंत्री रहे सरदार वल्लभ भाई पटेल का स्वर्गवास हो चुका था। वहीं, प्रथम कानून मंत्री बाबा साहेब आंबेडकर 1951-52 में हुआ लोकसभा चुनाव हार गए थे, जिसके कारण वे भी सदन के सदस्य नहीं थे। बाबा साहेब के सामने कांग्रेस ने उनके ही PA नारायण काजरोलकर को मैदान में उतारा था। नारायण को राजनीति का ककहरा भी नहीं पता था, किन्तु नेहरू लहर पर सवार होकर उन्होंने एक तरफा जीत दर्ज की और बाबा साहेब चौथे स्थान पर रहे।
नेहरू जी से कुछ वैचारिक मतभेद रखने वाले पटेल और अंबेडकर के न होने से कांग्रेस को किसी भी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा और प्रचंड बहुमत से वक्फ कानून 1955 पारित हो गया, जिसके तहत वक्फ बोर्ड को अधिकार दिए गए। 1964 में इसी कानून के तहत, केंद्रीय वक्फ परिषद का गठन हुआ, जो अल्पसंख्यक मंत्रालय के अधीन आता था। ये परिषद्, वक्फ बोर्ड से संबंधित कामकाज के बारे में केंद्र सरकार को सलाह देता है।
फिर आया, नरसिम्हा राव का समय। 90 के दशक की शुरुआत में ही राम मंदिर आंदोलन के कारण भारत में उथलपुथल मची हुई थी। केंद्र में कांग्रेस सरकार होते हुए भी बाबरी ढांचा ढहा दिया गया था, जिसके कारण मुस्लिम समुदय पार्टी से नाराज़ दिख रहा था। ऐसे में कांग्रेस सरकार ने 1995 में वक्फ कानून में फिर से संशोधन किया और इस बार बोर्ड को असीमित शक्तियां दे दी गईं, यानी वक्फ अब किसी भी संपत्ति पर दावा कर सकता था और इसके लिए उसे कोई सबूत भी पेश करने की जरूरत नहीं रही। सबूत उस व्यक्ति को पेश करने होंगे, जिसकी जमीन को वक्फ अपना बता रहा है। वक्फ एक्ट 1995 की धारा 40 के अनुसार, यह जमीन किसकी है, यह वक्फ का सर्वेयर और वक्फ बोर्ड ही तय करेगा।
इसके बाद आया वर्ष 2013। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल का अंतिम वर्ष चल रहा था, अगले साल लोकसभा चुनाव होने थे। शायद कांग्रेस को आभास हो गया था कि, 2014 के चुनाव में उसकी वापसी नहीं होगी, ऐसे में सरकार ने 2013 में ही वक्फ कानून में एक बड़ा संशोधन किया और ये प्रावधान जोड़ दिया कि यदि वक्फ किसी संपत्ति पर दावा करता है, तो जमीन मालिक (पीड़ित) कोर्ट भी नहीं जा सकता, उसे वक्फ ट्रिब्यूनल में जाकर ही गुहार लगानी होगी। वक्फ एक्ट की धारा 85 के अनुसार, वक़्फ ट्रिब्यूनल के फैसले को हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती नहीं दी जा सकती। यानी अब वक़्फ ट्रिब्यूनल अपने आप में सुप्रीम कोर्ट से भी ऊपर हो चुका था, खुद ही जमीनों पर दावा करना और खुद ही फैसला सुना देना।
इस तरह वक़्फ बोर्ड भारत में 9 लाख एकड़ से अधिक सम्पत्तियों का मालिक बन गया, जिसकी अनुमानित कीमत 1.2 लाख करोड़ रूपए है। अब केवल भारतीय रेलवे और भारतीय सेना ही जमीन के मामले में वक्फ से आगे है, वक़्फ देश का तीसरा सबसे बड़ा जमींदार है और उसके दावे अब भी जारी हैं। मजे की बात ये है कि सेना और रेलवे के जमीनी विवाद में भी कोर्ट दखल दे सकती है, लेकिन वक्फ को हाथ नहीं लगा सकती।
गत वर्ष ऐसा एक मामला सामने भी आया था, जब उत्तराखंड के हल्द्वानी में रेलवे की जमीन पर अतिक्रमण करके 400-500 परिवारों ने अपना ठिकाना बना लिया था। उत्तराखंड हाई कोर्ट में जब मामला पहुंचा, तो अदालत ने अतिक्रमण हटाने के निर्देश दिए, किन्तु जब प्रशासनिक अमला अतिक्रमण हटाने पहुंचा, तो भीड़ ने उनपर जानलेवा हमला कर दिया, कई कर्मचारी जख्मी हो गए। फ़ौरन ही ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया और बड़े बड़े वकील अतिक्रमणकारियों के पक्ष में खड़े हो गए। 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि सरकार इन लोगों के पुनर्वास को लेकर प्रबन्ध करे, और अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई रोक दी गई। यानी, सुप्रीम कोर्ट, एक बार रेलवे को भी रोक सकती है, जबकि उसकी जमीन पर अवैध अतिक्रमण है, किन्तु वक्फ को नहीं रोक सकती, फिर चाहे उसने अवैध कब्जा ही क्यों न किया हो। वक़्फ को दी गई संपत्ति, इस्लामी नियमों के मुताबिक, अल्लाह की हो जाती है, अब उसे वापस नहीं लिया जा सकता।
प्राचीन धरोहरों से लेकर सरकारी इमारतों और खेत खलिहानों से लेकर, पूरे के पूरे गाँव तक वक्फ ने कई जगह विवादित दावे किए हैं और इसका फैसला करने का अधिकार भी उसी के पास है। यहाँ कोर्ट और सरकार कोई दखल नहीं दे सकती। मोदी सरकार अब इसी कानून में संशोधन करना चाहती है, ताकि पीड़ित कम से कम कोर्ट तो जा सके। किन्तु इससे पहले ही कांग्रेस-सपा-TMC समेत कई विपक्षी नेता और मुस्लिम संगठन वक्फ संशोधन बिल के विरोध में उतर आए हैं। लेकिन एक बड़ा सवाल ये है कि जब देश आज़ाद हुआ, तो 565 रियासतों ने अपना सर्वस्व एक राष्ट्र के निर्माण हेतु दान कर दिया, तो फिर वक्फ कहाँ से आया ? यदि उन 565 रियासतों के वंशज अपनी जमीन वापस मांगें तो? टोडरमल जैन ने 78000 सोने की मुहरें बिछाकर, गुरु गोबिंद सिंह जी के दोनों पुत्रों को दीवार में चिनवाने के बाद उनके व दादी मां के पार्थिव शरीरों के अंतिम संस्कार के लिए मुग़लों से जमीन खरीदी थी, अब जैन समुदाय उस जमीन को वापस मांगने लगे तो?
यदि मुस्लिम समुदाय ये तर्क देता है कि, अकबर-बाबर और मुस्लिम नवाबों ने जमीनें दान की थी, इसलिए उन पर उनका (वक्फ का) हक़ है, तो क्या अन्य समुदाय के राजा-महाराजाओं ने कुछ दान नहीं किया होगा? तो क्या वे आज अपनी दान की हुई जमीन वापस मांग सकते हैं ? फिर वक्फ को ही ये विशेषाधिकार क्यों ? जब देश आज़ाद होने और संविधान बनने के बाद सारी रियासतों का विलय हो गया, जमींदारी प्रथा ख़त्म हो गई और कश्मीर से कन्याकुमारी तक की पूरी जमीन सरकार की हो गई, तो फिर वक्फ के नाम से अलग जमींदारी शुरू करने की क्या आवश्यकता पड़ी ? ये सवाल सुप्रीम कोर्ट में जरूर उठने चाहिए।
2 नवंबर 1990 का दिन था, लाल कृष्ण आडवाणी का राम मंदिर आंदोलन चरम पर था। आडवाणी को तो गिरफ्तार कर लिया जा चुका था, लेकिन कारसेवक बाबरी ढाँचे की तरफ लगातार बढ़ रहे थे। यही वो समय था, जब यूपी के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोलीबारी का आदेश दिया था। इस घटना ने देशभर में हलचल मचा दी थी और मुलायम सिंह को 'मुल्ला मुलायम' नाम मिला।
लेकिन, यूपी में हुई इस घटना ने केंद्र की राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला। हिन्दू संगठन शुरू से ही 3 मंदिरों की मांग कर रहे थे, जिन्हे मुग़ल आक्रमणकारियों द्वारा तोड़ दिया गया था। इनमे अयोध्या, काशी और मथुरा के मंदिर शामिल थे, इन तीनों मंदिरों के मुक़दमे अंग्रेज़ों के समय से ही अदालतों में चल रहे थे। लेकिन आज़ादी के इतने सालों बाद भी कोई प्रगति नहीं हुई थी, जिसका नतीजा राम मंदिर आंदोलन में दिखा। लेकिन इससे मुस्लिम संगठन और कांग्रेस सतर्क हो गए, कि इस तरह का आंदोलन अन्य मंदिरों को लेकर भी हो सकता है, यहीं से जन्म हुआ पूजा स्थल अधिनियम का।
इस कानून के तहत 15 अगस्त 1947 को जिस धार्मिक संरचना का जो चरित्र था, वो वैसा ही बना रहेगा, अर्थात वो मंदिर था तो मंदिर ही रहेगा और मस्जिद थी तो मस्जिद ही रहेगी। लेकिन, इस कानून को जम्मू कश्मीर में लागू नहीं किया गया, जहाँ 1990 के बाद भी कई मंदिर तोड़े गए। बहरहाल, इस कानून के बनने से हिन्दुओं समेत अन्य गैर-मुस्लिमों को बड़ा झटका लगा, जो अपनी प्राचीन धरोहर पाने के लिए सदियों से संघर्ष कर रहे थे।
अयोध्या का मामला सन 1822 से कोर्ट में चल रहा था। सबसे पहले एक मुस्लिम अधिकारी हाफिजुल्लाह ने फ़ैजाबाद कोर्ट में दलील दी थी कि अयोध्या में सीता रसोई के पास में भगवान राम का जन्मस्थान है, जहां बाबर ने मस्जिद बना दी थी। इससे पहले भी और इसके बाद भी, कई बार सिखों, निहंगों, नागा साधुओं, बैरागियों और आम हिन्दुओं ने राम मंदिर पाने के लिए संघर्ष किया, बलिदान दिया, किन्तु 100 वर्षों से अधिक समय तक कोर्ट में केस चलने के बावजूद फैसला नहीं हुआ। फैसला हुआ तो 2019 में जाकर, जिसे अब भी कुछ लोग नहीं मानते।
काशी का मामला 1936 में पहली बार कोर्ट पहुंचा, वैसे राम मंदिर की ही तरह इसके लिए भी कई बार लड़ाइयां हुईं, किन्तु अदालती कार्रवाई 1936 में शुरू हुई। जब दीन मोहम्मद नामक एक शख्स ने वाराणसी कोर्ट में याचिका लगाई कि ज्ञानवापी मस्जिद के आसपास की सारी जमीन उन्हें सौंपी जाए, लेकिन कोर्ट ने इंकार कर दिया। मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट गया, जहाँ से आदेश मिला कि मस्जिद को छोड़कर बाकी जमीन व्यास परिवार की है। लेकिन, 1993 में मुलायम यादव सरकार ने व्यास तहखाने पर भी ताला लगा दिया और ज्ञानवापी में स्थित श्रृंगार गौरी की पूजा पर भी रोक लगा दी।
इस बीच जब 1991 में मामला दुबारा अदालत पहुंचा, तो निचली अदालत ने सबूत जुटाने का आदेश दिया। पर तब तक पूजा स्थल अधिनियम बन चुका था, तो मस्जिद का प्रबंधन करने वाली अंजुमन इंतजामिया कमिटी इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुँच गई और इसी कानून का हवाला देते हुए निचली अदालत के आदेश पर रोक लगवा दी।
वहीं, मथुरा का मामला भी पहली बार अदालत में 15 मार्च 1832 को पहुंचा। 1832 से लेकर 1965 तक चले 9 मुकदमों में हर बार मंदिर पक्ष की दलील मानी गई, शाही ईदगाह की तरफ से पर्याप्त प्रमाण नहीं दिए जा सके। तब 1968 में एक समझौता हुआ कि, 13.37 एकड़ जमीन पर मंदिर और मस्जिद दोनों बने रहेंगे। हालाँकि, कुछ सालों बाद 1968 के समझौते को हिन्दू पक्ष की तरफ से अवैध बताया गया, और कहा गया कि जिसके साथ भी ये समझौता किया गया है, वो इसका अधिकारी नहीं था। फिर सालों गुजरे और पूजा स्थल अधिनियम आ गया, जिसने हिन्दुओं को अदालत जाने से ही रोक दिया।
मुगलों द्वारा लिखी किताबों, जैसे मासिर-ए-आलमगीरी में औरंगज़ेब द्वारा मंदिर तोड़ने का जिक्र है। अल्लामा मुहम्मद नजमुलगनी खान रामपुरी ने 1909 में जो 'तारीखे अवध' लिखी है, उसमे मंदिर तोड़ने की बात है। चिंतामणि शुक्ल की पुस्तक ' मथुरा जनपद का राजनीतिक इतिहास' में भी मथुरा मंदिर तोड़ने का उल्लेख किया गया है। अब अगर मौजूदा भारतीय मुस्लिम विद्वानों की राय देखें, तो ये स्पष्ट नज़र आता है कि प्राचीन काल में मंदिर तोड़े गए थे और क्यों तोड़े गए थे, इसका सीधा उत्तर ये है कि इस्लाम में मूर्तिपूजा हराम है।
कुरान भी कहती है कि मक्का-मदीना में इस्लाम फैलने से पहले वहां 360 मूर्तियां थी, जिसे पैगंबर मोहम्मद ने खुद तुड़वाया, वैसे ही जैसे 2001 में तालिबान ने अफगानिस्तान की बामियान बुद्ध मूर्तियों को बम से उड़ा दिया, ये तो दुनिया की आँखों देखी बात थी। अब भारत के प्रसिद्ध पुरातत्वविद केके मुहम्मद खुलकर कहते हैं कि अयोध्या, काशी, मथुरा के अलावा भी कई प्राचीन मंदिर मुगलों ने तोड़े हैं, भारतीय मुस्लिमों को ख़ुशी ख़ुशी ये स्थान हिन्दुओं को सौंप देने चाहिए। केके मुहम्मद वही हैं, जिन्होंने बाबरी ढांचा खोदकर मंदिर के सबूत जुटाए थे।
वहीं, जाने माने इतिहासकार और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर इरफ़ान हबीब भी मानते हैं कि, मुग़ल आक्रांताओं ने मंदिर तोड़े है, किन्तु वे इसे वापस लौटाने की बात नहीं करते। वे कहते हैं कि हाँ मंदिर तोड़े गए हैं, इसकी तारीख भी इतिहास में दर्ज है, सारे सबूत हैं, किन्तु अब इन मुद्दों को उठाकर कोई फायदा नहीं। वहीं, जो मुस्लिम पक्षकार काशी और मथुरा का मुकदमा लड़ रहे हैं, वो तो ये बात मानने से ही साफ़ मुकर जाते हैं कि मंदिर तोड़े गए थे ? वे सीधे पूजा स्थल अधिनियम का हवाला देते हैं, जो इस तरह के मामलों में कोर्ट जाने से रोकता है।
जबकि, क़ुतुब मीनार परिसर के अंदर आज भी सरकारी बोर्ड पर लिखा हुआ है कि ये मस्जिद 27 जैन मंदिरों को तोड़कर बनाई गई है। तो क्या इसे जैन समुदाय की धरोहरों के साथ कुठाराघात ना माना जाए ? क्या अदालत इस कानून को हरी झंडी देकर आक्रांताओं द्वारा किए गए पापों को स्वीकृति नहीं दे रही कि, ग़ज़नी, गौरी से लेकर बाबर औरंगज़ेब ने भारत की संस्कृति को जिस तरह रौंदा, वो सही था? और अगर वो सही नहीं था, तो उस समय की गलतियों को क्यों न सुधारा जाए ?
सवाल एक ये भी है कि विवाद करेगा कौन? जो लोग सदियों से अपना धर्मस्थल पाने के लिए कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं, वे विवाद करेंगे? या वे विवाद करेंगे, जो वक्फ कानून का लाभ उठाकर किसी भी जमीन पर अपना दावा ठोंक दे रहे हैं ? क्या पूजा स्थल कानून और वक्फ कानून, संविधान के खिलाफ नहीं?
भारत का हो या ब्रह्माण्ड का, एक स्थापित न्याय क्या कहता है ? जो वस्तु जिसकी है, उसे मिलनी चाहिए और इसी कारण सभ्यताओं ने अदालतें बनाई हैं। भारत में भी लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ में से एक स्तम्भ न्यायपालिका है, जो तथ्यों को देखकर, प्रमाणों पर गौर करके फैसला देती है। किन्तु, कोई कानून बनाकर यदि पीड़ित व्यक्ति को अदालत जाने से ही रोक दिया जाए तो क्या होगा ? यही पूजा स्थल अधिनियम और वक्फ अधिनियम में हो रहा है।
भारतीय संविधान हर भारतीय को न्याय का अधिकार देता है और न्याय करने का अधिकार न्यायपालिका के हाथों में है। किन्तु यदि किसी पीड़ित को अदालत जाने से ही रोक दिया जाए, तो क्या ये संविधान का उल्लंघन नहीं होगा ? संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण शक्ति प्रदान करता है, जिसका उपयोग कर वो तथ्यों के आधार पर न्याय कर सके। किन्तु जब मामला कोर्ट में जाएगा ही नहीं, तो न्याय कैसे होगा ? क्या वही वक्फ ट्रिब्यूनल न्याय करेगा, जिसने बिना तथ्यों के आधार पर किसी की जमीन पर दावा ठोंक दिया है। या वो समितियां न्याय करेंगी, जो मुगल आक्रमणकारियों द्वारा कब्जा की गई सम्पत्तियों पर अधिपत्य जमकर बैठ गई हैं और अब पूजा स्थल अधिनियम की आड़ लेकर, मामले की सच्चाई सामने आने से रोक रही हैं।
प्रत्येक भारतीय शायद यही सोचता होगा कि, न्याय के मुताबिक, जिसकी वस्तु उसे मिल जानी चाहिए, और न्याय, अदालतों में तथ्यों के आधार पर होना चाहिए, न कि किसी ट्रिब्यूनल से फैसला आना चाहिए। फ़िलहाल ये दोनों कानून सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर खड़े हैं। जिसमे भाजपा नेता दोनों कानूनों में संशोधनों की मांग कर रहे हैं, ताकि न्याय सुनिश्चित हो सके, वहीं कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष और मुस्लिम संगठन इन कानूनों को जस का तस रखने की मांग कर रहे हैं, जिसमे पीड़ित को कोर्ट जाने की भी अनुमति नहीं है। किन्तु कई सवाल हैं, जो इन मामलों की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में उठेंगे और भारत की न्यायपालिका को ये निर्णय लेना होगा कि क्या वो किसी भारतवासी को कोर्ट में न्याय मांगने से रोक सकती है ?