
नई दिल्ली : भारत में धर्म और व्यक्तिगत अधिकारों को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। केरल की रहने वाली सफिया पी एम ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है, जहां उन्होंने सवाल उठाया है कि जब कोई व्यक्ति इस्लाम छोड़ चुका हो, तो क्या उसे इस्लामिक शरिया कानून मानने के लिए बाध्य किया जा सकता है?
रिपोर्ट के अनुसार, सफिया अपनी बेटी को अपनी पूरी संपत्ति देना चाहती हैं, लेकिन शरिया कानून उन्हें इसकी अनुमति नहीं देता। इस्लाम में बेटी को पिता की संपत्ति का केवल एक तिहाई (33%) हिस्सा ही मिलता है, और बाकी हिस्सा अन्य रिश्तेदारों में बंट जाता है। सफिया का कहना है कि अब जब वह इस्लाम में विश्वास नहीं रखतीं, वे इस्लाम छोड़ चुकी हैं, तो उनके उत्तराधिकार के मामले भी संविधान के अनुसार तय होने चाहिए, न कि शरिया के अनुसार।
सफिया की इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। कोर्ट ने सरकार से कहा है कि वह इस मामले पर चार सप्ताह के भीतर हलफनामा दाखिल करे। इस मामले की सुनवाई अब मई में होगी। सफिया के मामले ने एक बड़े सवाल को जन्म दिया है, जब देश का संविधान हर नागरिक को अपने धर्म का पालन करने या उसे छोड़ने की स्वतंत्रता देता है, तो ‘एक्स-मुस्लिम’ यानी इस्लाम त्याग चुके व्यक्ति को यह अधिकार क्यों नहीं मिलता? सफिया का कहना है कि जब उन्होंने इस्लाम छोड़ दिया है, तो शरिया कानून उन पर क्यों थोपा जा रहा है?
बता दें कि एक्स मुस्लिम की तादाद दुनियाभर में तेजी से बढ़ रही है, भारत के दक्षिणी राज्य केरल में तो एक्स मुस्लिम्स की एक संस्था भी बन चुकी है। ये लोग इस्लाम में मौजूद कथित कुरीतियों और कट्टरपंथ के कारण मजहब छोड़ रहे हैं, किन्तु ये अधिक खुलकर सामने नहीं आते। क्योंकि, इन्हे जान का खतरा है, एक एक्स मुस्लिम साहिल के अनुसार, क़ुरान, इस्लाम छोड़ने वाले को मार डालने का हुक्म देती है, ऐसे में वो लोग छिपकर जीवन जीने को मजबूर हैं।
साफिया का तर्क है कि "अगर मैं किसी धर्म में विश्वास ही नहीं रखती, तो उसकी व्यक्तिगत कानून व्यवस्था मेरे मामलों को तय करने वाली कौन होती है? मेरे जीवन के फैसले संविधान के अनुसार होने चाहिए, न कि किसी धार्मिक व्यवस्था के अनुसार।" सफिया ने इस मामले में समान नागरिक संहिता (UCC) का समर्थन करते हुए कहा कि अगर यह कानून महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है, तो वह पूरी तरह से इसके पक्ष में हैं। उनका मानना है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ महिलाओं के साथ भेदभाव करता है और संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
यह मामला केवल एक व्यक्ति की संपत्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक बड़ा संवैधानिक प्रश्न भी उठाता है। अगर कोई व्यक्ति इस्लाम छोड़कर संविधान के अनुसार अपना जीवन जीना चाहता है, तो क्या उस पर जबरन शरिया कानून थोपा जा सकता है? क्या यह संविधान के अनुच्छेद 25 (धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन नहीं है? सवाल यह भी है कि अगर भारत का संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार देता है, तो फिर किसी धर्म विशेष के लोगों पर अलग-अलग कानून क्यों लागू किए जाते हैं? क्या यह समानता के सिद्धांत के खिलाफ नहीं है?
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन कर लेता है, तो उसके संपत्ति संबंधी मामलों को नागरिक कानूनों के अनुसार तय किया जाना चाहिए। लेकिन कई मामलों में मुस्लिम पर्सनल लॉ को संविधान से ऊपर माना जाता रहा है, जिससे कानूनी भ्रम की स्थिति बनी हुई है। अब देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस पर क्या निर्णय लेता है। क्या यह मामला मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाम संविधान की एक नई बहस को जन्म देगा? या फिर यह समान नागरिक संहिता की दिशा में एक और कदम साबित होगा? यह मामला न केवल महिलाओं के अधिकारों से जुड़ा है, बल्कि भारत के कानूनी ढांचे पर भी बड़ा असर डाल सकता है।