
नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में लोकपाल के उस आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें कहा गया था कि लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के तहत हाई कोर्ट के जजों की भी जांच हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को "बहुत परेशान करने वाला" करार देते हुए केंद्र सरकार और लोकपाल के रजिस्ट्रार को नोटिस जारी किया। यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट ने आरोपित जज का नाम और बाकी जानकारी सार्वजनिक करने से भी इंकार कर दिया। जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस अभय एस ओका की पीठ ने लोकपाल के तर्क पर असहमति जताई और आदेश के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी। हालाँकि, मामले पर अभी और सुनवाई होनी है, और अंतिम फैसला नहीं आया है, किन्तु इस मामले में कई सवालों को जन्म जरूर दे दिया है।
सबसे अधिक हैरानी की बात ये है कि इस मामले में किसी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका नहीं डाली थी और लोकपाल के आदेश पर रोक लगाने की मांग नहीं की थी। लेकिन, कई लंबित मामलों को छोड़कर सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल के इस आदेश का स्वतः संज्ञान लिया और उस पर रोक लगा दी। देश की सबसे बड़ी अदालत को जजों के खिलाफ जांच करना परेशान करने वाला लगा। शीर्ष अदालत ने कहा कि यह मामला न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। दरअसल, लोकपाल दो शिकायतों की सुनवाई कर रहा था, जिसमे उच्च न्यायालय के दो जज आरोपी थे और एक एडिशनल जिला जज आरोपी थे, इन पर आरोप था कि, इन्होने सुनवाई में एक निजी कंपनी के पक्ष में मामले को प्रभावित किया है। शिकायतकर्ता का कहना था कि कंपनी उस समय हाई कोर्ट के जज की क्लाइंट थी, जब वह (जज खुद) एक वकील थे। तमाम तथ्य देखते हुए लोकपाल ने जांच का आदेश दिया और कहा कि, हाईकोर्ट के न्यायाधीश भी "लोक सेवक" की परिभाषा के अंतर्गत आते हैं और इसलिए वे लोकपाल अधिनियम से बाहर नहीं हैं। किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए इस पर रोक लगा दी।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कई सवाल खड़े करता है। क्या न्यायाधीश खुद को कानून से ऊपर मानते हैं? यह वही अदालतें हैं, जो अक्सर अभियुक्तों से कहती हैं कि अगर उन्होंने अपराध नहीं किया, तो जांच से डरने की क्या जरूरत है? लेकिन जब बात न्यायाधीशों की जांच की आई, तो सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी, जिससे जनता को सवाल उठाने का अवसर मिल गया। आखिर, जब भारत के प्रधानमंत्रियों तक को जांच और मुकदमों का सामना करना पड़ा है, तो फिर न्यायाधीश इससे अछूते क्यों रहें?
भारत में प्रधानमंत्री तक जांच के दायरे में आ चुके हैं। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को तो दोषी तक करार दे दिया गया था, जिसके बाद उन्होंने आपातकाल लगाकर अपनी कुर्सी बचाने की कोशिश की थी। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी राफेल डील में भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई हुई और सरकार को अपने बचाव में गोपनीय दस्तावेज तक पेश करने पड़े। हालांकि, अंत में कोर्ट ने मोदी सरकार को क्लीन चिट दे दी, लेकिन इस दौरान राफेल डील की कीमत और उसकी विशेषताएँ सार्वजनिक हो गईं, जिसे सरकार देश विरोधियों से छुपाना चाह रही थी और सार्वजनिक नहीं करना चाह रही थी, क्योंकि ये एक बड़ा रक्षा सौदा था। जब प्रधानमंत्री तक को अदालत में जवाब देना पड़ता है, तो फिर न्यायाधीशों को विशेष संरक्षण क्यों दिया जा रहा है? क्या यह कोई ईश्वरीय वरदान है कि जज भ्रष्टाचार नहीं कर सकते? वे भी इंसान हैं और भ्रष्टाचार इंसान ही करता है। ऐसे में यदि किसी जज पर भ्रष्टाचार का आरोप लगता है, तो उसकी जांच से भागने का कोई कारण नहीं होना चाहिए।
यह कोई छिपी बात नहीं कि जजों की नियुक्ति हमेशा पारदर्शी नहीं रही है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी का एक पुराना मामला याद कीजिए, जब उनकी एक कथित सेक्स सीडी वायरल हुई थी। इसमें एक महिला वकील उनसे पूछ रही थी कि उसे जज कब बनाया जाएगा। उस दौर में कांग्रेस का बोलबाला था, जिसका नाम आगे बढ़ा दिया जाए, वही जज बन जाता था। यदि इस तरह से किसी को न्यायपालिका में जगह मिलती है, तो क्या यह संभव नहीं कि वह भविष्य में भ्रष्टाचार करेगा? क्योंकि, उसकी तो नियुक्ति ही अवैध तरीके से हुई है। इसी तरह उत्तर प्रदेश के माफिया अतीक अहमद के केस का भी जिक्र आता है, जिसकी सुनवाई से इलाहबाद हाई कोर्ट के 10 जजों ने अपने कदम पीछे खींच लिए थे और 11वें जज ने माफिया को जमानत दे दी थी। अब ये 10 जज किसी धमकी के दबाव में पीछे हटे थे या इसके पीछे कोई और कारण था ?
लोकपाल ने अपने आदेश में स्पष्ट किया था कि हाई कोर्ट के न्यायाधीश "लोक सेवक" की परिभाषा के अंतर्गत आते हैं और लोकपाल अधिनियम उन्हें इससे बाहर नहीं करता। इस आधार पर, जब लोकपाल ने हाई कोर्ट के जज और अन्य न्यायिक अधिकारियों की जांच का आदेश दिया, तो सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत इस पर रोक लगा दी। यह सवाल उठता है कि अगर जज एकदम पाक-साफ हैं, तो वे जांच से क्यों बचना चाहते हैं? यदि वे निर्दोष हैं, तो जांच के बाद भी उनकी छवि वैसी ही बनी रहेगी। लेकिन अगर वे दोषी पाए जाते हैं, तो फिर उनके खिलाफ भी उचित कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए, जैसे हर आम भारतीय अपराधी पर होती है। यही संविधान का मूल अधिकार है—हर भारतीय को न्याय पाने का अधिकार।
14 मार्च की रात दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के घर में आग लगी, जो लुटियंस दिल्ली में स्थित है। जब दमकल विभाग की गाड़ियां वहां पहुंची और अधिकारियों ने मोर्चा संभाला, तो जज साहब के घर के स्टोर रूम जैसे एक कमरे में कुछ अधजले बोरे मिले, जिसमे 500-500 रुपए के नोटों के बंडल भरे पड़े थे। ये नोट भी काफी हद तक जल चुके थे। घटना का वीडियो बना लिया गया और बात आग की तरह फैल गई। संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में इसकी चर्चा होने लगी।
22 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने वीडियो जारी करते हुए माना कि जस्टिस वर्मा के घर से 15 करोड़ कैश मिले हैं। उधर मामला सामने आने के बाद से ही जस्टिस वर्मा छुट्टी पर चले गए हैं। लेकिन हर तरफ एक ही सवाल उठ रहा है कि आखिर जज साहब के घर इतना कैश आया कहाँ से ? हालाँकि, जस्टिस वर्मा ने इस बात से साफ़ इंकार किया है कि ये कैश उनका है। उन्होंने इसके पीछे साजिश होने की बात कही है। अब तक जस्टिस वर्मा पर कोई FIR दर्ज नहीं हुई है, इस देरी ने भी न्यायपालिका पर सवाल खड़े किए हैं कि क्या न्यायपालिका जस्टिस वर्मा को बचा रही है ?
23 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना के आदेश पर जस्टिस शील नागू (पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस), जी एस संधावालिया (हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस) और कर्नाटक हाईकोर्ट के जस्टिस अनु शिवरामन को शामिल करते हुए एक 3 सदस्यीय जांच समिति का गठन किया गया है, जो इस कैश कांड की जाँच करेगी। लेकिन इस घटना ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि, क्या अब भी सुप्रीम कोर्ट, न्यायाधीशों के खिलाफ लोकपाल जांच की अनुमति नहीं देगी ?
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने न्यायपालिका की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। जब प्रधानमंत्री से लेकर आम नागरिक तक न्यायिक प्रक्रिया का सामना कर सकते हैं, तो न्यायाधीश इससे क्यों बचना चाहते हैं? क्या न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार जड़ें जमा चुका है? यह सवाल सिर्फ अदालतों के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए चिंताजनक है। न्यायपालिका पर जनता का भरोसा तभी बना रह सकता है, जब वह भी जांच और जवाबदेही के दायरे में आए।