
नई दिल्ली : 2014 ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार जिन बड़े एजेंडों को अपने चुनावी वादों में शामिल करके सत्ता में आई थी, उसमे से अधिकतर पूरे हो चुके हैं। भाजपा ने अपने घोषणापत्र में राम मंदिर विवाद के निराकरण का वादा किया था, जो कि पूर्ण हो चुका है। जम्मू कश्मीर को कई दशकों से छल रहे अनुच्छेद 370 और 35A को हटाने का वादा किया गया था, वो भी हटाई जा चुकी है। इसके अलावा तीन तलाक़ को अवैध घोषित किया जा चुका है, घुसपैठियों से निपटने के लिए NRC पर कदम बढ़ा दिए गए हैं। अभी हाल ही में मोदी सरकार ने वक्फ संशोधन विधेयक (2025) को संसद के दोनों सदनों में पास कराकर, वक्फ की असीमित शक्तियों पर भी रोक लगा दी है।
'मंदिर वहीं बनाएंगे, लेकिन तारीख नहीं बताएंगे।' अक्सर विपक्षी नेता ये कहकर भाजपा पर तंज कसा करते थे। किन्तु जब मंदिर बन गया, तो यही विपक्षी नेता कहने लगे कि वो तो सुप्रीम कोर्ट के आर्डर से बना है। हालाँकि, गौर करने वाली बात ये भी है कि मुकदमा तो सुप्रीम कोर्ट में कई दशकों से चल रहा था, फिर अदालत का आदेश आने में इतना समय क्यों लगा? पुरानी खुदाई और पुराने सबूतों पर ही कोर्ट ने फैसला सुनाया, कोई नया सर्वे नहीं हुआ। दरअसल, इसका श्रेय सरकार को इसलिए जाता है, क्योंकि यदि सरकार सुरक्षा की गारंटी नहीं लेती, तो संभव है कि माहौल बिगड़ने के डर से अदालत भी इस मामले को टाल देती। अयोध्या मामले को लेकर माहौल ही ऐसा था, लेकिन, केंद्र और यूपी की सरकार ने मिलकर स्थिति को अच्छे से नियंत्रित किया और कोई अप्रिय घटना नहीं हुई।
ये एजेंडा भाजपा के तरकश में तबसे था, जब उसका नाम जनसंघ हुआ करता था। भाजपा के पितृपुरुष कहे जाने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसी अनुच्छेद के खिलाफ संघर्ष करते हुए बलिदान दे दिया था। मुखर्जी का कहना था कि एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं होने चाहिए। दरअसल, 370 हटने से पहले कश्मीर का अपना अलग संविधान था, जिसमे कई विवादित प्रावधान थे, वहां के सीएम को एक तरह से पीएम की पदवी प्राप्त थी, क्योंकि केंद्र वहां अधिक दखल नहीं दे सकता था और कश्मीर का भारतीय तिरंगे से अलग हटकर अपना झंडा भी था।
370 को लेकर भी कई तरह की धमकियाँ दी गईं, महबूबा मुफ़्ती ने कहा कि अगर इस अनुच्छेद को हाथ लगाया तो कश्मीर में कोई तिरंगा उठाने वाला नहीं मिलेगा। वहीं, फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि 10 जन्मों में भी 370 हटाई नहीं जा सकती। किन्तु 5 अगस्त 2019 को मोदी सरकार ने इस अनुच्छेद को निरस्त कर कश्मीर का भारत से संबंध और मजबूत कर दिया। इससे जहाँ आतंकवाद में पहले के मुकाबले कमी आई, वहीं दशकों से भेदभाव झेल रहे दलितों को भी अपना अधिकार मिला। ये भी गौर करने वाली बात है कि, भारत में दलितों के नाम पर राजनीति करने वाले कई नेता हैं, कुछ तो पूरे दल ही दलित वोट बैंक पर चलते हैं, लेकिन इनमे से एक ने भी कश्मीरी दलितों के लिए आवाज़ नहीं उठाई। 370 रहने तक दलितों को विधानसभा चुनाव में वोटिंग का अधिकार नहीं था और न ही वे सफाईकर्मी के अलावा किसी और नौकरी के लिए आवेदन कर सकते थे।
2024 में हुए जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव में इन हज़ारों-लाखों दलितों ने आज़ादी के बाद पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग किया। हालाँकि, विपक्ष ने केंद्र सरकार के इस फैसले को असंवैधानिक साबित करने की पूरी कोशिश की, मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी गया, किन्तु अदालत में विपक्ष ऐसी कोई ठोस दलील नहीं दे सका, जिससे सरकार का फैसला असंवैधानिक लगे, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी।
अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक कारणों से प्रताड़ना झेल रहे गैर-मुस्लिमों के लिए ये कानून लाया गया था। जो इन पीड़ितों को भारत की नागरिकता देने का प्रावधान करता था। लेकिन इसको राजनेताओं द्वारा इस तरह प्रचारित किया गया कि ये कानून भारतीय मुस्लिमों की नागरिकता छीन लेगा। जिसका नतीजा ये हुआ कि कई शहरों में मुस्लिम समुदाय सड़कों पर उतर आए और अराजकता फ़ैल गई। दिल्ली ने तो दंगों का वीभत्स मंजर भी देखा, जिसमे 50 से अधिक लोगों की जान गई।
संसद में भी इस कानून का काफी विरोध हुआ, विपक्षी नेताओं में से कुछ ने तर्क दिया कि पड़ोसी मुल्कों में अल्पसंख्यकों पर कोई अत्याचार नहीं होते हैं, ये बिल वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए लाया गया है। हालाँकि, आज वे राजनेता बांग्लादेश की स्थिति अपनी आँखों से देख सकते हैं, क्या वहां अल्पसंख्यक सुरक्षित हैं ? बहरहाल, ये कानून लागू हुआ और अगस्त 2024 तक 188 पाकिस्तानी हिन्दुओं को इस कानून के तहत भारतीय नागरिकता मिल चुकी है।
देश का तीसरा सबसे बड़ा जमींदार वक्फ, कांग्रेस सरकार द्वारा दी गई शक्तियों के कारण सुप्रीम कोर्ट से भी ऊपर हो चुका था। वो अगर किसी की जमीन पर हाथ रख दे, तो पीड़ित व्यक्ति को कोर्ट जाने की भी इजाजत नहीं थी। सरकार ने इस पर तर्क दिया कि न्याय करने का फैसला तो अदालत का है, पीड़ित को कोर्ट जाने की तो अनुमति होनी चाहिए। लेकिन पूरा विपक्ष और कई मुस्लिम संगठन इसके विरोध में उठ खड़े हुए, सड़क से संसद तक जमकर हंगामा हुआ और बिल JPC के पास चर्चा के लिए भेज दिया गया।
समय गुजरा और JPC ने चर्चा कर अपनी रिपोर्ट सदन में जमा कर दी। फिर मतदान हुआ और वक्फ संशोधन बिल लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों में पारित हो गया। अब राष्ट्रपति के दस्तखत होते ही ये कानून की शक्ल ले लेगा और सरकारी जमीनें वक्फ के कब्जे से मुक्त कराई जा सकेंगी। साथ ही पीड़ित व्यक्ति को कोर्ट जाने का अधिकार मिलेगा और वक्फ के मनमाने कब्जों पर रोक लगेगी।
इन बड़े एजेंडों को पूरा करने के बाद अब सवाल उठने लगे हैं कि भविष्य में मोदी सरकार के पिटारे में से और क्या निकलने वाला है और उसका आम जनमानस पर क्या असर पड़ेगा। सियासी पंडितों ने अभी से इसको लेकर कयास लगाना शुरू कर दिए हैं।
एक देश एक कानून की वकालत भी भाजपा लंबे समय से करती आ रही है। हालाँकि, इसमें भी धार्मिक कारणों से बाधा आ रही है। मुस्लिम समुदाय इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं, वे इस्लामी शरिया कानून से चलना चाहते हैं। हालाँकि, ये भी मजेदार है कि मुस्लिम समुदाय, 4 निकाह, तलाक़, हलाला, संपत्ति का उत्तराधिकार आदि के लिए तो शरिया कानून की मांग करते हैं, लेकिन किसी अपराध के समय वे चाहते हैं कि सजा उन्हें भारतीय कानून के मुताबिक मिले। इसे लेकर एक बार गृह मंत्री अमित शाह ने कहा भी था कि, अगर शरिया चाहिए, तो फिर पूर्ण शरिया दिया जाना चाहिए। फिर चोरी करने वाले के हाथ काट दिए जाने चाहिए, शरिया के मुताबिक सजा भी मिलनी चाहिए, सिर्फ शादी के लिए पर्सनल लॉ क्यों?
उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर अपने राज्य में UCC लागू कर दिया है। इसी साल जनवरी में उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार ने समान नागरिक संहिता लागू की है। राज्य के अल्पसंख्यक समुदाय ने इसका विरोध अवश्य किया था, किन्तु कानून लागू होने के बाद अब तक इस संबंध में कोई अवांछनीय समाचार नहीं आया है। माना जा रहा है कि उत्तराखंड की रिपोर्ट के ही आधार पर केंद्र सरकार पूरे देश में एक देश एक कानून लागू करने पर जल्द कदम उठा सकती है।
यूँ तो NRC की चर्चा CAA के साथ ही शुरू हो गई थी, और असम में NRC लागू भी किया जा चुका है। लेकिन पूरे देश में लागू करने के लिए इस कानून का मसौदा अभी तैयार नहीं हुआ है। विपक्षी नेता और अल्सपंख्यक समुदाय इसका भी विरोध कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि हर देश के पास अपने नागरिकों का रजिस्टर होता है, जिसमे देश में रहने वाले नागरिकों की पहचान और रिकॉर्ड रखे जाते हैं, लेकिन भारत में इसका विरोध हो रहा है।
भारत में घुसपैठियों की समस्या से कोर्ट भी हैरान है। झारखंड हाई कोर्ट में जब गत वर्ष आदिवासियों की तादाद घटने का मामला पहुंचा था, तब कोर्ट ने राज्य सरकार से घुसपैठ को लेकर जवाब माँगा था। इस पर सोरेन सरकार ने कहा था कि कोई घुसपैठ नहीं हुई। तब HC ने तीखे शब्दों में कहा था कि यदि कोई घुसपैठ नहीं हुई, तो आदिवासी आबादी इतनी कम कैसे हो गई। कई इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स में बंगाल, झारखंड, असम, त्रिपुरा जैसे राज्यों में अवैध घुसपैठ को लेकर चिंता जताई गई है। केंद्र सरकार भी इसको लेकर अलर्ट है, गृह मंत्री अमित शाह कई बार कह चुके हैं कि एक एक घुसपैठिए को चुन-चुनकर देश से बाहर निकाला जाएगा। ऐसे में इस संबंध में भी सरकार जल्द ही कोई बड़ा ऐलान कर सकती है।
भारत में 1967 तक विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ ही होते थे। हालांकि, 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं के वक़्त से पहले भंग होने की वजह से यह चक्र बाधित हो गया और अलग अलग चुनाव होने लगे। आज स्थिति ये है कि साल भर में देश में किसी न किसी जगह पर आचार संहिता लागू रहती ही है और आधे समय राजनेता भी अपने काम छोड़कर चुनाव प्रचार में लगे रहते हैं, जिससे विकास कार्य बाधित होता है।
केंद्र सरकार का कहना है कि एक देश एक चुनाव लागू होने से 5 वर्षों में एक बार ही आचार संहिता लगाने की आवश्यकता होगी और 5 वर्षों में एक बार ही नेताओं को प्रचार करना होगा, बाकी समय वे अपने काम पर ध्यान दे सकेंगे। इससे जनता का समय और बार-बार चुनाव में लगने वाला पैसा दोनों बचेंगे। साथ ही जो प्रशासनिक अमला चुनाव संपन्न कराने में लगा रहता है, वो भी अपने कार्यों पर ध्यान दे सकेगा। हालाँकि, विपक्ष असंवैधानिक बताते हुए इसका भी विरोध कर रहा है, लेकिन सरकार ने इस तरफ कदम बढ़ा दिए हैं। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में एक देश एक चुनाव पर चर्चा करने के लिए एक समिति का गठन किया गया था, समिति ने अब रिपोर्ट बनाकर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी है। अब ये देखना है कि सरकार कितनी जल्दी उस रिपोर्ट पर मंथन करती है और उसके क्या परिणाम निकलकर आते हैं।