
हम जब भी सिनेमा हॉल में कदम रखते हैं, तो स्क्रीन पर चल रही फिल्म से पहले जो सुगंध हमारे मन को मोह लेती है, वह है गरमागरम मक्खन वाले पॉपकॉर्न की। पॉपकॉर्न और सिनेमा का रिश्ता अब इतना गहरा हो गया है कि एक के बिना दूसरा अधूरा सा लगने लग जाता है। लेकिन क्या यह रिश्ता हमेशा से ऐसा था? क्या पॉपकॉर्न शुरू से ही थिएटर का हिस्सा था या फिर यह बाद में सिनेमाई संस्कृति का भाग बन गया? पॉपकॉर्न कोई नया आविष्कार नहीं है। इसके प्रमाण 5000 वर्ष पुराने बताए जाते हैं। अमेरिका के आदिवासी इसे ‘पॉप्ड कॉर्न’ के रूप में आग में भूनते थे। ये सिर्फ खाने का ज़रिया नहीं था, बल्कि कई बार धार्मिक अनुष्ठानों में भी इस्तेमाल होता था।
सिनेमाघर 1900 के दशक की शुरुआत में जब उभरे, तो वे “आर्ट हाउस” कहे जाते थे। वे ‘उच्च वर्ग’ के लिए थे और थिएटर के भीतर भोजन वर्जित था। पॉपकॉर्न को तब सस्ती, सड़क किनारे बिकने वाली चीज़ माना जाता था, जो आम जनता खाती थी। लेकिन फिर 1927 में जब सिनेमा में "साउंड" आया — यानी ‘टॉकीज़’ — तो निम्न और मध्य वर्ग के दर्शक भी सिनेमाघरों की ओर आकर्षित हुए। यहीं से पॉपकॉर्न ने सिनेमा में प्रवेश करना शुरू किया।
वर्ष 1930 के समय अमेरिका में महामंदी का दौर चल रहा था। लोग मनोरंजन चाहते थे पर उनकी जेब में एक भी रूपए नहीं था। सिनेमा एक सस्ता माध्यम बन गया और पॉपकॉर्न, मात्र 5 से 10 सेंट में मिलने वाला स्नैक, लोगों को राहत देने लगा। इस बीच स्ट्रीट वेंडर्स सिनेमाघरों के बाहर पॉपकॉर्न बेचने का कारोबार शुरू कर दिया। धीरे-धीरे थिएटर मालिकों ने समझा कि इससे उन्हें भी कमाई हो सकती है। उन्होंने पॉपकॉर्न स्टॉल्स को थिएटर के भीतर लाना शुरू किया।
पॉपकॉर्न और सिनेमाघरों का आर्थिक गठबंधन:
ऐसा समय ऐसा भी आया जब सिनेमा हॉल के मालिकों ने देखा की पॉपकॉर्न के माध्यम से अच्छा मुनाफा हो रहा है तो उन्होंने इसे अपना बिज़नेस बनाने के बारें में सोचा और इस योजना को अंजाम भी दिया। कुछ आंकड़ों के अनुसार, थिएटर की कुल कमाई का 40–60% हिस्सा सिर्फ कंसेशन स्टैंड्स (पॉपकॉर्न, कोल्ड ड्रिंक, नाचोज़) से आता है। इतना ही नहीं इसका कारण यह है कि फिल्मों की टिकट से अधिकतर रेवेन्यू फिल्म स्टूडियो को जाता है, जबकि पॉपकॉर्न की कीमतें बहुत ज्यादा होती हैं — जिससे भारी मुनाफा मिलता है।
वहीं 1990 और 2000 के दशक में जब मल्टीप्लेक्स का दौर शुरू हुआ, तो पॉपकॉर्न भी ‘ग्लैमराइज’ हो उठा। अब यह सिर्फ मक्खन वाला नहीं, बल्कि कैरेमल, चीज़, चॉकलेट, टैंगी टमाटर और बार्बेक्यू फ्लेवर में मिलने लग गया। जब फ्लेवर बदला तो कीमत में भी फर्क आया, उस वक़्त भारत में ₹200 से ₹500 तक का पॉपकॉर्न बिकता है, जो कई बार टिकट से भी ज़्यादा महंगा होता है। लोगों ने इसका विरोध भी किया, लेकिन पॉपकॉर्न का सिनेमाई अनुभव से जुड़ाव इतना गहरा हो गया है कि यह विरोध स्थायी नहीं रहा।
मनोवैज्ञानिक पहलू: सिनेमा सिर्फ देखने का नहीं, बल्कि एक मल्टी-सेंसरी एक्सपीरियंस है। मूवी शुरू होने से पहले पॉपकॉर्न की सुगंध दर्शकों की मूड सेट कर देती है। क्रंच की आवाज़, मक्खन का स्वाद और हाथ में टब — ये सब मिलकर सिनेमा को एक समृद्ध अनुभव को और भी कई गुना बढ़ा देते हैं। यह आदत इतनी गहराई से जुड़ गई है कि कुछ लोगों को बिना पॉपकॉर्न के फिल्म देखना अधूरा लगता है — ये एक तरह की सेन्सरी मेमोरी बन चुकी है।
भारत में 1990 के दशक से पूर्व पॉपकॉर्न सिनेमा का खास भाग नहीं था। तब समोसे, बोंडा, चाय या कुल्फी मिलती थी। मल्टीप्लेक्स कल्चर ने पॉपकॉर्न को भी साथ लाया। आज बड़े शहरों में हर मल्टीप्लेक्स में पॉपकॉर्न एक कॉमन स्नैक है। हालांकि छोटे शहरों और सिंगल स्क्रीन थिएटर्स में अब भी पॉपकॉर्न उतना प्रधान नहीं है।
आलोचना और विवाद:
पॉपकॉर्न के मूल्यों को लेकर हमेशा से लोगों के बीच विवाद रहा है। कई उपभोक्ता संगठनों ने इस पर प्रश्न उठाए कि कैसे ₹30 का पॉपकॉर्न थिएटर में ₹300 में बिकता है। कई राज्यों में कानूनी हस्तक्षेप भी हुए, जैसे महाराष्ट्र में 2018 में एक जनहित याचिका दायर हुई थी। हालांकि मल्टीप्लेक्स का जवाब यही रहता है — “हम अनुभव बेचते हैं, सिर्फ पॉपकॉर्न नहीं। पॉपकॉर्न और सिनेमा का रिश्ता आज सिर्फ भोजन और मनोरंजन का नहीं, बल्कि व्यापार, संस्कृति और आदत का बन चुका है। यह एक ऐसा संबंध है जो स्वाद, सुगंध और भावना के माध्यम से दर्शकों के दिल से जुड़ता है। यह रिश्ता एक उदाहरण है कि कैसे एक मामूली चीज़ — जो कभी सस्ते स्ट्रीट फूड के रूप में जानी जाती थी — समय के साथ एक सांस्कृतिक प्रतीक बन गई। सिनेमा हॉल में पॉपकॉर्न न हो, तो जैसे मंच पर अभिनेता न हो।
वर्ल्ड वॉर-2 ने वैश्विक उथल-पुथल और पॉपकॉर्न परिदृश्य में अप्रत्याशित परिवर्तन ला दिया, जिसके परिणामस्वरूप लोकप्रियता को और भी ज्यादा बढ़ा दिया। युद्ध के दौरान, चीनी की राशनिंग की गई, जिससे कई मीठे व्यंजनों पर इसका भारी प्रभाव देखने के लिए। हालाँकि, पॉपकॉर्न, एक स्वादिष्ट व्यंजन, ने एक अलग स्थान प्राप्त किया। इतना ही नहीं चीनी की कमी के कारण पारंपरिक नाश्ते पर असर पड़ा, इसलिए लोगों ने पॉपकॉर्न को एक संतोषजनक और आसानी से उपलब्ध विकल्प के रूप में अपनाया। इसकी कुरकुरी अच्छाई ने एक ऐसा आराम प्रदान किया जो युद्धकालीन दर्शकों को पसंद आया; इस प्रकार, पॉपकॉर्न की खपत बढ़ गई।