खगोलीय रहस्य से जुड़ा है जंतर-मंतर का इतिहास? जानिए इसमें क्या है खास

जंतर मंतर, जयपुर, महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय द्वारा 1728-1734 के बीच निर्मित एक खगोलीय वेधशाला है। इसमें 19 खगोलीय यंत्र हैं, जिनमें सम्राट यंत्र सबसे प्रसिद्ध है। यह भारतीय खगोल विज्ञान की उन्नति का प्रतीक है।

खगोलीय रहस्य से जुड़ा है जंतर-मंतर का इतिहास? जानिए इसमें क्या है खास

जंतर-मंतर में मौजूद है खगोलीय रहस्य जो लोगों के बीच है प्रसिद्ध

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Highlights

  • जंतर मंतर में मौजूद है दुनिया की सबसे बड़ी सौर घड़ी (सम्राट यंत्र)।
  • 19 विभिन्न खगोलीय उपकरण जंतर-मंतर में मौजूद है।
  • जंतर-मंतर को माना जाता है भारतीय खगोल विज्ञान का अद्भुत उदाहरण।

भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और वैज्ञानिक धरोहर का प्रतीक, जंतर मंतर, जयपुर, एक प्राचीन खगोलीय वेधशाला है। यह न केवल अपनी विशाल संरचनाओं और गणितीय सटीकता के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि इसकी निर्माण तकनीकों और खगोलीय ज्ञान के लिए भी दुनिया भर में पहचाना जाता है।

जंतर मंतर का इतिहास:- 

जयपुर नगर में वैधशाला या जंतर-मंतर नगर प्रसाद बपजल चंसंबमद्ध की चौकड़ी में ही नगर प्रासाद के सामने ही बसा हुआ है। जयसिंह को खगोलिविद्या में रूचि होने की वजह से शासक बनते बन जाने के बाद ही आंबेर महल में विविध खगोल यंत्रों तथा उकनी कार्यप्रणाली पर कार्य करना शुरू कर दिया था।

जब तक उसके अवलोकन यंत्र पूरे नही हो गए तब तक जयसिंह ने इस पर पूर्ण रूप से काम किया गया था। खगोल यंत्र के निर्माण की प्रथम तिथि में अनिश्चितता रही परन्तु 1728 ई. तक वर्तमान स्थान (जंतर-मंतर में) बहुत से यंत्रों का निर्माण किया था।

तत्पश्चात् जयपुर में 1738 ई. तक भिन्न-भिन्न चरणों में इनका निर्माण लगातार चल रहा था। जंतर मंतर के यंत्रों के निर्माण के चरम शिखर में 1734-35 ई. में 23 खगोलविद तथा बहुत से कारीगरों को दैनिक मजदूरी पर कार्य भी करवाया था। जिसका अहम् कारण स्थापत्यकार विद्याधर भट्टाचार्य थे जो कि महाराजा के मुख्य स्थापत्यकार थे।

दिल्ली, उज्जैन और जयपुर में मौजूद है वैधशालाएँ: जंतर मंतर के नाम से पचाने जाने वाली दिल्ली की वैधशाला को करीबन 200 वर्षों से इसी नाम से पहचाना जाता है किन्तु जयपुर राज्य के अभिलेखागार किसी भी वैधशाला के लिए जंतर-मंतर शब्द का प्रयोग नहीं करते

बल्कि जयपुर अभिलेखागार द्वारा इनके लिए जंत्र या यंत्र शब्द का इस्तेमाल किया जाता है परन्तु बोलचाल के दूषित रूप में इसको जंतर नाम से पुकारा जाने लगा जबकि दूसरे शब्द मंतर की उत्पत्ति प्रथम शब्द जंतर की साम्यता के रूप में बनाया गया।

जंतर-मंतर में मौजूद है प्रयुत्त विभिन्न यंत्र (Instruments):  

उन्नतांश यंत्र:

यह यंत्र आकाश में मौजूद किसी पिंड के उन्नतांश के साथ साथ कोणिय ऊँचाई सजपजनकमद्ध मापने के कार्य आता है। इस यंत्र में पीतल का एक विशाल अंशंकित वृत हतंकनंजमक बपतब समद्ध लगा है जो कि इस तरह स्थित है कि वह एक लंबवत धुरी के चारों ओर मुक्त रूप से घूम रहा है।

इस वृत में लंबवत और क्षैतिज दिशओं में 1 दूसरे काटने वाले दो शहतीर बतवे इमंडेद्ध भी है। वृत के मध्य में दृष्टि नली पहीजपदह इंतद्ध लगाकर इसे किसी खागोलिय पिंड के समानंतर लाने के लिए वृत को घुमाया जाए और जाकर दृष्टि नली से पिंड को देखा जाता है। उन्नतांश की यह संरचना आधुनिक युग के दूरबीन को स्थापित करने की आल्ट ऐज विधि के जैसे है ही।

यंत्र राज:

ये यंत्र जतवसंइमद्ध का ही एक परिवर्धित रूप कहा जाताहै जो कि समय तथा खागोलिय पिंडों की स्थिति मापने वाला एक एक मुख्य मध्यकालीन उपकरण (equipment) था। सवाई जयसिंह की यंत्रराज में अत्यधिक रूचि थी तथा उन्होंने विभिनन भाषाओं के छोटे बड़े यंत्रराजों का संकलन एवं अध्ययन कर जयपुर वैधशाला के लिए विस्तृत यंत्र राज का निर्माण किया गया।

सिद्धान्ततः इस उपकरण का उपयोग के समय, सूर्य व गृहों की स्थिति, लगन तथा उन्नतांश की जानकारी, खगोलिय स्थितियों तथा उनमें आने वाले बदलावों की गणना में इस्तेमाल किया जाता है।

क्रांति वृत यंत्र:

क्रांति वृत यंत्र आकाश में मौजूद किसी पिंड के खागोलिय अक्षांश और खगोलिय देशांतर रेखांश मापने के रूप में किया जाता है। इससे दिन के वक़्त सूर्य की सायन राशि वसंत पहदद्ध एवं क्रांति का ज्ञान भी देखने के लिए मिलता है।

नाड़ीवलय यंत्र:

इस यंत्र में उत्तर गोल एवं दक्षिण गोल 2 गोलाकार प्लेंटे हैं जो कि घड़ी के डायल की तरह ही होता है। जिस दीवार पर ये प्लेटे स्थित हैं वह एक खास कोण पर दक्षिण की ओर झुकी हुई दिखाई देती है इससे यंत्र की स्थिति भूमध्यरेखा के समांतर हो जाती है। प्लेटो के केन्द्र में स्थित शंकु की परछाई डायल प्लेट पर बनी माप के साथ चलती है जिससे स्थानीय समय की जानकारी प्रदान करती है।

ध्रुवदर्शक पट्टिका:

ध्रुवदर्शक पट्टिका वैद्यशाला के अन्य सभी यंत्रों के मामलों में ये सबसे सरल यंत्र कहा जाता है। समलम्बी संरचना के इस यंत्र के ऊपर एक पट्टी लगी हुई है जो कि समतल के साथ वैद्यशाला के अक्षांश के बराबर का कोण बनाती है।

पट्टिका का ऊपर तल उत्तरी ध्रुव की ओर इंगित करता है जहाँ ध्रुव तारा स्थित है। इसी आधार पर यंत्र का नाम ध्रुवदर्शक रखा गया है। ध्रुवदर्शक यंत्र को प्राचीनकाल का दिशा सूचक यंत्र भी बोला जाता है।

वैज्ञानिक और खगोलीय महत्व

  • इन यंत्रों का उपयोग खगोलीय घटनाओं जैसे ग्रहण, नक्षत्र परिवर्तन और समय मापन में किया जाता है।
  • आधुनिक युग में भी ये उपकरण काफी सटीकता से काम करते हैं।
  • यह वेधशाला दर्शाती है कि भारतीय खगोल विज्ञान कितनी उन्नत अवस्था में था।

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