
काबुल : अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के बाद महिलाओं की शिक्षा पर लगातार प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। हाल ही में तालिबान सरकार ने महिलाओं को मेडिसिन की पढ़ाई करने से रोक दिया है। इस फैसले के खिलाफ अफगानिस्तान के प्रसिद्ध क्रिकेटर राशिद खान और मोहम्मद नबी ने आवाज उठाई है। राशिद खान ने सोशल मीडिया पर कहा कि यह निर्णय अफगान समाज के लिए घातक साबित होगा, क्योंकि अफगानिस्तान में महिला डॉक्टरों और नर्सों की बेहद जरूरत है।
मोहम्मद नबी ने राशिद खान का समर्थन करते हुए तालिबान के इस फैसले को अन्यायपूर्ण बताया। उन्होंने कहा कि इस्लाम में शिक्षा को हमेशा से महत्व दिया गया है और मुस्लिम इतिहास में कई महिलाओं के उदाहरण हैं जिन्होंने ज्ञान के माध्यम से समाज में बदलाव लाया। दोनों खिलाड़ियों ने तालिबान से अपील की कि वे इस फैसले पर पुनर्विचार करें और महिलाओं को शिक्षा का अधिकार दें।
तालिबान ने 2021 में अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा करने के बाद कई ऐसे फरमान जारी किए जो महिलाओं के अधिकारों को खत्म करने की दिशा में एक बड़ा कदम थे।
1996-2001 के बीच तालिबान ने अफगानिस्तान पर शासन किया था और उस समय महिलाओं पर भीषण अत्याचार किए गए थे। महिलाओं को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे जाते थे, उन्हें पत्थरों से मार-मारकर मौत के घाट उतारा जाता था, और उन्हें घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी। लड़कियों की शिक्षा पूरी तरह बंद कर दी गई थी और महिलाओं के रोजगार के सभी रास्ते बंद कर दिए गए थे।
जिसके बाद अफगानिस्तान में क्रान्ति हुई और अमेरिका की मदद से अशरफ़ ग़नी अहमदज़ई ने अफगानिस्तान की बागडौर संभाली। गनी ने 2014 से लेकर 2021 तक देश पर शासन किया, किन्तु 2021 में तालिबानी आक्रमण के कारण गनी को देश छोड़कर भागना पड़ा। इसके पीछे एक कारण ये भी है कि अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के बाद जो बाइडेन प्रशासन ने अफगानिस्तान से अपनी सेना हटा ली थी और अमेरिका के कई घातक हथियार, टैंक आदि वहीं रह गए थे, जो बाद में तालिबानियों के काम आए।
Credit : Twitter/ तालिबान शासन में महिलाओं पर कई प्रतिबंध
अमेरिकी सेना हटते ही, तालिबान ने पूरी शक्ति के साथ आक्रमण किया, जिसका मुकाबला अफगान फ़ौज नहीं कर पाई और तख्तापलट हो गया। उस वक्त हज़ारों की संख्या में लोग अफगानिस्तान छोड़कर पलायन कर गए, कई अफगानी मुस्लिमों ने पाकिस्तान में एंट्री ली, तो कई ईरान-इराक़ भाग गए। किन्तु, अफगानिस्तान में रहने वाले हिन्दू-सिखों और बौद्धों के लिए किसी इस्लामी देश के दरवाजे नहीं खुले थे, उन्हें वापस भारत आना पड़ा। मीडिया और सोशल मीडिया में वो तस्वीरें जमकर फैली, जिसमे सिख बंधू अपने मस्तक पर श्री गुरु ग्रन्थ साहिब रखकर हवाई अड्डों पर उत्तर रहे हैं, उनके पैरों में चप्पल नहीं है और आँखों में अपना सबकुछ लुट जाने का दर्द है। आज वही दर्द अफगानिस्तान की महिलाएं भी झेल रही हैं।
यहाँ एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है—क्या दुनियाभर में महिलाओं के अधिकारों की बात करने वाले समूह अफगानिस्तान की महिलाओं के प्रति संवेदनशील नहीं हैं? भारत में महिलाओं के अधिकारों पर रिपोर्ट जारी करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन, जो छोटी-छोटी घटनाओं को भी बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं, वे अफगानिस्तान में महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों पर चुप क्यों हैं?
जब भारत में किसी मुद्दे को उठाना हो, तो अंतरराष्ट्रीय मीडिया और मानवाधिकार संगठन सक्रिय हो जाते हैं, लेकिन अफगानिस्तान में महिलाओं के अधिकारों के हनन पर वे मौन धारण कर लेते हैं। क्या यह उनकी नीति का हिस्सा है? क्या यह केवल राजनीतिक और वैचारिक अजेंडे का हिस्सा है? यह पक्षपाती रवैया कई लोगों के बुरे जीवन का कारण बना हुआ है।
तालिबान के फैसले अफगानिस्तान को और पीछे धकेल रहे हैं। महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध केवल महिलाओं को नहीं, बल्कि पूरे देश को प्रभावित करता है। अफगानिस्तान को शिक्षित डॉक्टरों, नर्सों और पेशेवरों की जरूरत है, और महिलाओं को शिक्षा से वंचित करना देश की प्रगति को रोकने के समान है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और तालिबान पर दबाव बनाना चाहिए ताकि महिलाओं को उनके अधिकार मिल सकें।