भारत में विलय चाहता था बलूचिस्तान, आज झेल रहा पाकिस्तान के अत्याचार

खनिजों से भरी हुई धरती बलूचिस्तान, बंटवारे के वक्त भारत में मिलने वाली थी, कलात के खान पाकिस्तान के साथ जाने के सख्त खिलाफ थे। लेकिन, नेहरू सरकार के इंकार और एक कथित फर्जी रेडियो अनाउंसमेंट से पाकिस्तान-बलूचिस्तान का पूरा इतिहास बदल गया, जिसका असर आज भी देखने को मिलता है।

भारत में विलय चाहता था बलूचिस्तान, आज झेल रहा पाकिस्तान के अत्याचार

बलूचिस्तान ने की स्वतंत्र देश की मांग, भारत से मांगी मदद

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Highlights

  • पाकिस्तान और बलूचिस्तान का इतिहास।
  • बलूचिस्तान पर पाकिस्तान के अत्याचार।
  • भारत में मिलना चाहता था बलूचिस्तान।

इस्लामाबाद : 'आपने हमें भेड़ियों के सामने फेंक दिया..' ये शब्द थे सरहदी गांधी के नाम से मशहूर खान अब्दुल गफ्फार खान के। बलूचिस्तान के उदारवादी नेता अब्दुल गफ्फार उर्फ़ बादशाह खान ने ये बात महात्मा गांधी से कही थी, जब भारत ने बलूचिस्तान के विलय के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था। बलूचिस्तान शायद पाकिस्तान बनने के परिणाम पहले से जानता था, इसलिए वो भारत में शामिल होना चाहता था, लेकिन भारत के तत्कालीन नेताओं ने उसकी ये गुहार नहीं मानी और आज भी बलूचिस्तान उस त्रासदी की मार झेल रहा है। अत्याचार सहते-सहते तंग आ चुके बलूचों ने अब हथियार उठा लिए हैं और पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंक दिया है। लेकिन ये आग अचानक नहीं भड़की, सदियों तक ये बलूचिस्तान की रेतीली धरती के नीचे भभकती रही और आज उग्र रूप ले चुकी है। 

भारत में विलय होना चाहता था बलूचिस्तान :

पाकिस्तान का बलूचिस्तान प्रान्त, चार रियासतों में बंटा हुआ है, कलात, खारान, लॉस बुला और मकरान। बंटवारे के समय कलात को छोड़कर बाकी तीनों रियासतों ने पाकिस्तान को चुना था। 1870 में ब्रिटिश सरकार ने कलात की ख़ान सल्तनत के साथ एक करार दिया, जिससे ये रियासतें अंग्रेज़ों के अधीन तो आ गईं थीं, लेकिन अब भी  ब्रिटिश सरकार का इन पर कोई सीधा नियंत्रण नहीं था।

भूटान की तरह ही अंग्रेज़ों की एक टुकड़ी यहाँ तैनात रहती थी, ताकि रूस की हरकतों पर नज़र रख सके, लेकिन  अंग्रेज़ यहां के प्रशासन में सीधा दखल नहीं दे पाते थे। जब बंटवारे का समय आया, तो अंग्रेज़ों ने फिर से एक चाल चली, उन्होंने कलात को सिक्किम और भूटान जैसे राज्यों की श्रेणी में रख दिया, बलूचिस्तान की बाकी तीन रियासतों ने पहले ही पाकिस्तान को चुन लिया था, लेकिन कलात आज़ाद रहना चाहता था। कलात के खान, मीर अहमद ख़ान ने अपनी रियासत को आज़ाद रखने की कोशिश 1946 से ही शुरू कर दी थी।

1946 में अंग्रेज़ों ने कैबिनेट मिशन प्लान लागू किया, जिसके तहत कांग्रेस के अध्यक्ष का ही भारत का प्रथम प्रधानमंत्री बनना तय हुआ। लेकिन, अधिकतर कांग्रेस समितियों ने सरदार वल्लभभाई पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में चुना और नेहरू हार गए। जिसके बाद महात्मा गांधी के दबाव में आकर पटेल ने अपना नामांकन वापस ले लिया और नेहरू के लिए जगह छोड़ दी। इसी बीच, मीर अहमद ने अपना एक वकील पैरवी के लिए कैबिनेट मिशन के पास भेजा, जो कलात की आज़ादी का पक्ष रखने गया था, जिन्ना ने भी मीर अहमद का साथ दिया, आखिर दोनों अच्छे दोस्त थे। 

जर्मन राजनीतिक विज्ञानी मार्टिन एक्समैन ने अपनी किताब, - 'बैक टू द फ्यूचर: द ख़ानेट ऑफ कलात एंड द जेनेसिस ऑफ बलोच नेशनलिज़म 1915-1955' में लिखा है कि, जिन्ना ने कैबिनेट में कहा कि 'कलात की संधि ब्रिटिश भारत सरकार के साथ नहीं बल्कि, ब्रिटिश क्राउन (लंदन) के साथ है, इसलिए उसे आज़ाद रहने दिया जाए।' लेकिन, नेहरू ने कलात को आज़ाद मानने से इंकार कर दिया। भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने माना कि कलात, भारत का हिस्सा नहीं है, लेकिन वो भारत-पाकिस्तान जैसे दो बड़े देशों के बीच आज़ाद कैसे रह सकता है। उसकी सुरक्षा के लिए अगर ब्रिटिश फ़ौज उसकी रियासत में रही, तो फिर आज़ादी का कोई मतलब ही नहीं निकलेगा। 

कोई रास्ता न निकलते देख, कलात के खान खुद दिल्ली पहुँच गए। 4 अगस्त 1947 का दिन था, बंटवारे और आज़ादी की योजनाओं को अंतिम रूप दिया जा रहा था। मॉउन्टबेटन, जिन्ना समेत कई बड़े नेता राउंड टेबल कांफ्रेंस के लिए मौजूद थे। इसी बैठक में फैसला हुआ कि कलात को आज़ाद रखा जाएगा और मुस्लिम लीग भी इसे समर्थन देने के लिए तैयार हो गई। 

कैसे पाकिस्तान में शामिल हुआ कलात ?

15 अगस्त को भारत आज़ाद हुआ, जिसके अगले ही दिन कलात के खान ने अपनी रियासत के आज़ाद होने का ऐलान कर दिया और अपनी संसद भी बना ली, जिसमे दो सदन थे, उच्च सदन यानि ‘दारुल उमराह’ और निचला सदन यानी ‘दारुल आवाम’। इसमें एक प्रस्ताव पारित हुआ, जिसमे कहा गया कि पाकिस्तान के साथ भी कलात के दोस्ताना संबंध रहेंगे। 

इधर पाकिस्तान भी अपने जन्म के बाद पैर पसारने लगा था, कलात को छोड़कर बलूचिस्तान की बाकी तीन रियासतें, खारान लॉस बुला और मकरान धीरे-धीरे पाकिस्तान में विलय होने लगी, जैसा उनका पहले से विचार था। इससे कलात पर भी दबाव बढ़ने लगा और आखिरकार वो दिन आ ही गया, जब पानी कलात के सर के ऊपर से बह निकला। अक्टूबर 1947 में जिन्ना ने खुलकर कह दिया कि 'अब कलात को भी पाकिस्तान में शामिल हो जाना चाहिए, आखिर हम सब मुसलमान हैं।'  

पाकिस्तानी इतिहासकार याक़ूब ख़ान बंगाश ने अपनी किताब 'अ प्रिंसली अफेयर' में जिन्ना के इस प्रस्ताव का जवाब लिखा है। याकूब लिखते हैं कि, जिन्ना के इस प्रताव पर कलात ने अपनी संसद में जवाब दिया, 'अफ़ग़ानिस्तान और ईरान की तरह हमारी संस्कृति भी पाकिस्तान से अलग है। केवल मुसलमान होने से हम पाकिस्तानी नहीं हो जाते और यदिर ऐसा है, तो फिर ईरान और अफ़ग़ानिस्तान को भी पाकिस्तान में विलय कर लेना चाहिए।' 

इसके बाद कुछ दिनों तक ये मामला दबा रहा, क्योंकि, जिन्ना भारत से जूनागढ़, कश्मीर और हैदराबाद भी लेने की फ़िराक में थे और उसी के लिए कोशिशें कर रहे थे, इसलिए कलात पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए, और वैसे भी जिन्ना के अनुसार, कलात को तो कभी भी अपनी तरफ खींचा जा सकता था। इसी बीच 27 मार्च 1948 को ऑल इंडिया रेडियो के प्रसारण में एक प्रेस कांफ्रेंस का उल्लेख करते हुए बताया गया कि, 'कलात पाकिस्तान की जगह भारत में मिलना चाहता था, लेकिन भारत का कलात मुद्दे के साथ कोई लेना देना नहीं है।' प्रसारण में ये बात तत्कालीन केंद्रीय सचिव वीपी मेनन के हवाले से कही गई, जो भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक आग की तरह फ़ैल गई। 

कलात के खान ने जब ये खबर सुनी, तो वे हैरान रह गए, भारत उन्हें ऐसे कैसे छोड़ सकता था ? वो ये भी जानते थे कि पाकिस्तान इस खबर पर चुप नहीं बैठेगा और हुआ भी यही। अगले ही दिन, यानी 28 मार्च को जिन्ना ने कलात पर चढ़ाई करने का फरमान सुना दिया और फिर शुरू हुआ बलूचों का नरसंहार। कलात के खान को जबरदस्ती उठाकर कराची ले आया गया और उनसे बलपूर्वक विलय पत्र पर दस्तखत ले लिए गए। इसके बाद से ही बलूचों में पाकिस्तान के प्रति आग भड़की हुई है, जो समय समय पर सामने आती रहती है।     

क्या है बलूच लिबरेशन आर्मी (BLA) :

आप अक्सर खबरों में बलूच लिबरेशन आर्मी का नाम सुनते रहते होंगे, जो पाकिस्तान के विभिन्न क्षेत्रों में हमले करती रहती है, खासकर पाकिस्तानी सेना पर। इस संगठनों को बलूच के लोग, राष्ट्रवादी संगठन मानते हैं, जो अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है, वहीं पाकिस्तान इसे आतंकी संगठन कहता है और इसे कुचलने में लगा हुआ है। यह संगठन 1970 के दशक की शुरुआत में पहली बार सामने आया, जब बलूच लोगों ने ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह शुरू किया। इसके अलावा भी बलूचिस्तान में कई ऐसे संगठन सक्रीय हैं, जो बलूचिस्तान की आज़ादी की मांग करते हैं, लेकिन सशस्त्र विद्रोह करने वालों में BLA का नाम सबसे ऊपर है।

बलूच लोगों का आज भी मनना है कि वे बंटवारे के समय भारत में विलय चाहते थे, लेकिन बलपूर्वक उन्हें पाकिस्तान में शामिल किया गया और उसके बाद पाकिस्तानी सेना ने उन पर जुल्म किए। इसलिए इस प्रांत के लोगों का पाकिस्तान की सरकार और वहां की सेना के साथ संघर्ष होता रहा है और वो आज भी जारी है। हाल ही में BLA की गतिविधियां तब और तेज हो गई हैं, जब पाकिस्तान, प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर बलूचिस्तान में चीन का दखल बढ़ाने लगा है, जिसका बलूच लोग पुरजोर विरोध कर रहे हैं। ग्वादर बंदरगाह भी पाकिस्तान ने चीन को दे दिया है, जिससे बलूचिस्तान की पूरी कमाई चीन ले जाता है। 

भारत से क्या गलती हुई ?

आपको ये जानकार भी हैरानी होगी कि जिस बेशकीमती ग्वादर बंदरगाह का इस्तेमाल आज चीन कर रहा है, वो भी भारत को मिलने वाला था, लेकिन तत्कालीन नेहरू सरकार ने इंकार कर दिया। ब्रिगेडियर गुरुमीत कंवल (सेवानिवृत्त) ने 2016 के ओपिनियन पीस 'द हिस्टोरिक ब्लंडर ऑफ इंडिया नो वन टॉक्स अबाउट' में कहा है कि, "ओमान के सुल्तान से अमूल्य उपहार स्वीकार न करना स्वतंत्रता के बाद की रणनीतिक भूलों की लंबी फेहरिस्त में एक और बड़ी गलती थी।"     

दरअसल, 1950 के दशक में ओमान के सुलतान (जो उस समय ग्वादर के मालिक थे) ने भारत को ये बंदरगाह बेचने की पशकश की थी, वो भी बेहद कम दामों पर, लेकिन नेहरू सरकार ने किन्ही कारणों से इंकार कर दिया और 1958 में पाकिस्तान ने ये मौका लपक लिया और महज 3 मिलियन पाउंड में वो स्थान खरीद लिया। आज उस बंदरगाह के जरिए पूरे एशिया और यूरोप के भी बड़े हिस्से में व्यापार किया जा सकता है। चीन की वन बेल्ट वन रोड (OBOR) परियोजना भी ग्वादर से होकर गुजरती है, जो ड्रैगन को भारत पर बड़ी रणनीतिक बढ़त दे सकती है। 

BLA इसका भी विरोध करते हैं और अक्सर चीनी कर्मचारियों और अफसरों पर हमला करते रहते हैं। लेकिन मुट्ठी भर बलूच विद्रोही कब तक पाकिस्तान और चीन की संयुक्त ताकत का मुकाबला कर पाएंगे, ये कहना बेहद मुश्किल है। क्योंकि, बलूचिस्तान एक गरीब प्रान्त है, और उसे अन्य आतंकी संगठनों की तरह कोई बाहरी मदद भी नहीं है, ऐसे में ये लड़ाई बलूच लोगों के लिए बेहद मुश्किल हो जाती है। लेकिन, इस जंग का असर भारत  पर भी पड़ने वाला है, यदि बलूच विद्रोही कमज़ोर हुए, और चीन वहां ताकतवर हुआ, तो इसका नुकसान भारत को ही होगा। भारत पहले ही बलूचिस्तान और ग्वादर बंदरगाह को हासिल करने के सुनहरे मौके गंवा चुका है, क्या अब उसे बलूचों को सशक्त करने के लिए कुछ नहीं करना चाहिए?

 

 

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