
हीरे विश्व में सबसे पहले भारत में पाए गए जिसके कई तरह के साक्ष्य 4th सेंचुरी के ट्रेड में देखने के लिए मिलते है। भारत से डायमंड की खरीद फरोख्त स्किल रुट के माध्यम से बाकि के देशों में होती थी। लेकिन अभी तक कोई भी ऐसा हीरे का टुकड़ा नहीं मिला था, जिसे एक बार देखने के बाद बस उसे देखते ही रह जाए, वक़्त के बदलने के बाद डायमंड एक बेशकीमती चीज के रूप में अपनी पहचान बना चुका था। 13th सेंचुरी में जहां पूरी दुनिया में एक भी हीरे की खान नहीं थी, तभी भारत में एक ऐसे हीरे की खोज हुई जिसकी चमक देखकर बड़े से बड़े राजा भी हैरान हो गए थे। ये हीरा कोई मामूली हीरा नहीं बल्कि बहुत ही अनोखा था, तब किसी को ये मालूम नहीं था कि आने वाले समय में ये हीरा इतना बेशकीमती हो जाएगा, कि इसे जो भी एक बार देखेगा बस देखता ही रह जाएगा। जैसे-जैसे इसकी पॉपुलर्टी बढ़ती गई वैसे वैसे उस समय के राजाओं में इसे हासिल करने की चाह बढ़ती गई। दरअसल आज की कहानी है कोहिनूर हीरे की जो भारत की कोख से निकला और आज ब्रिटेन की खास धरोहर बना हुआ है। लेकिन ऐसा नहीं है कि कभी भारत की शान में चार चाँद लगाने वाला कोहिनूर रातोंरात ब्रिटेन चला गया या फिर उन्होंने इसे भारत से किसी युद्ध में छीन लिया। हकीकत तो ये है कि कोहिनूर की कहानी बहुत बड़ी है, भारत में एक रजवाड़े से होते हुए दूसरे रजवाड़े की सैर करते हुए फाइनली ये हीरा ब्रिटिश क्राउन को एक गिफ्ट के तौर पर दे दिया गया था। यहाँ एक और बड़ी बात ये भी है कि मुग़ल सल्तनत के ताजो तख्त से होते हुए क्वीन विक्टोरिया के सर का ताज बनने तक के सफर में इस हीरे को कभी न तो खरीदा गया और न कभी बेचा गया। शायद इसी वजह से ये हीरा इतना बेशकीमती है, पर कोहिनूर की अपनी ही एक कहानी रही है, इस हीरे की चमक में कई लोगों का खून लगा हुआ है और इसकी चाहत से कई किस्सों से दुनिया आज भी बेखबर है। तो चलिए आज हम आपको बताएंगे कोहिनूर की चमकीली कहानी के बारें में...
कोहिनूर के ओरिजन के बारें में कई तरह की कहानियां प्रचलित है, ऐसी ही एक कहानी के अनुसार इस हीरे को करीब 5 हजार साल पहले जामवंत जी ने भगवान श्री कृष्ण को दिया था। महाभारत काल में इस हीरे को स्यमंतक मणि के नाम से जाना जाता था, लेकिन इसके बारें में कहानी यहीं खत्म नहीं होती, जहां कोहिनूर को महाभारत काल का बताया जाता तो वहीं ये भी कहा जाता है कि इस हीरे को 3200 वर्ष पूर्व एक नदी में खोजा गया। खेर इसकी सच्चाई जो भी हो लेकिन आज तक इस हीरे की ओरिजन के बारें में उचित जानकारी नहीं मिल पाई है। कोहिनूर अपने खोजे जाने के वक़्त दुनिया का सबसे बड़ा डायमंड था और उसका कुल वजन 793 कैरट के आसपास था, बाद में इस हीरे को कई तरह से तराशा गया है, जिसकी वजह से इसका वजन घट कर 105.6 कैरट ही रहा गया है,। हालाँकि कई बार तराशे जाने के बाद भी कोहिनूर अब भी दुनिया के सबसे बड़े तराशे हुए हीरों में से एक कहा जाता है।
कई दावों के अनुसार कोहिनूर की कहानी 13th सेंचुरी में शुरू होती है, जब आज के आंध्र प्रदेश में काकतिया डायनेस्टी का राज था, उन्ही दिनों वहां के गोलकोण्डा में कोयले की खदाने थी, जिनकी खुदाई की जा रही थी, यहीं के एक कोलनूर माइन में कोहिनूर की खोज हुई, कोहिनूर के खोजे जाने के वक़्त में भारत में राजा महाराजाओं का दौर हुआ था, इसलिए जब भी कोई नई चीज खोजी जाती उसे सीधे राजा के पास भेज दिया जाता था, इसी तरह से कोहिनूर के मिलते ही उसे काकतिया डायनेस्टी के राजा के पास पंहुचा दिया गया, जहां राजा इसकी सुंदरता और चमक देखकर बहुत प्रभावित हुए और इस हीरे को उन्होंने अपनी कुलदेवी भद्रकाली की बाई आंख में लगवा दिया जिसकी चर्चा पूरे भारत में होने लगी, कुछ समय के बाद इसकी खबर अलाउद्दीन खिलजी के पास पहुंची उन दिनों खिलजी अपने एम्पायर के एक्सपेन्सन के बड़े सपने देख रहा था, और भारत के दक्षिणी हिस्से में भी अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। कुछ ही महीनों के पश्चात मालिककाफूर की कमांड में खिलजी की सेना ने काकतिया डायनेस्टी पर हमला कर कोहिनूर को लूट लिया जिसके बाद ये हीरा अलाउद्दीन खिलजी के पास आ गया, एवं दिल्ली की सल्तनत का हिस्सा बन गया।
आगे चलकर खिजलियों को हराकर तुगलकों ने दिल्ली सल्तनत पर अपना कब्ज़ा जमा लिया, तब तक कोहिनूर इतना फेमस हो गया था कि जब भी कोई राजा दूसरे को हरा देता वह हारने वाले राजा से कोहिनूर ले लेता, इसी तरह कोहिनूर भी खिलजियों से होकर तुगलकों के पास पहुंच गया, तुगलकों के पास पहुंचने के बाद कोहिनूर फ़िरोज़शाह तुगलक के पास आ गया, आगे चलकर कोहिनूर तुगलकों से होते हुए मालवा के राजा होशंगशाह के हाथों में आ गया, मालवा का राजा बनने के बाद होशंगशाह ने अपने पड़ोसी राज्य ग्वालियर को जीतना चाहता था, उस समय ग्वालियर पर तो तोमर राजा Dogrendra Singh का शासन था, होशंगशाह ने मौका पाते ही ग्वालियर पर हमला कर दिया, लेकिन वह Dogrendra Singh से बुरी तरह से हार गया अपनी जान बचाने के होशंगशाह ने कोहिनूर समेत अपनी सारी सम्पति Dogrendra Singh को सौंप दी। इस घटना का जिक्र बाबर नामा में भी मिलता है जो इस हीरे का फर्स्ट डॉक्युमेंटेड प्रूफ भी है। Dogrendra Singh से होता हुआ ये हीरा अंतिम तोमर राजा विक्रमादित्य तक पहुंच गया, उस समय तक दिल्ली सल्तनत की सत्ता इब्राहिम लोधी के हाथों आ गई थी।
इब्राहिम लोधी ने भी कोहिनूर के चर्चे सुने हुए थे, इसके उसने अपने साम्राज्य का विस्तार करने और इस हीरे को पाने के लिए ग्वालियर पर अटैक कर दिया, वहीं इस युद्ध में राजा विक्रमादित्य की हार हुई हार के पश्चात राजा विक्रमादित्य को कोहिनूर समेत अपनी सारी सम्पति आगरा किले में रखनी पड़ी लेकिन इब्राहिम लोधी की जीत की ये ख़ुशी ज्यादा वक़्त तक न टिक सकी, केवल एक वर्ष के बाद ही उसे अपनी सत्ता और दौलत को बाबर के हाथों गवाना पड़ा, दरअसल उस समय बाबर दिल्ली सल्तनत पर राज करने के सपने संजोय 1519 से ही भारत पर कई बार हमले कर चुका था, लेकिन हर बार उसे यहाँ से केवल हार कर ही वापस जाना पड़ता था, लेकिन वर्ष 1526 में बाबर ने एक बार फिर भारत पर हमला किया, इस बार उसकी लड़ाई इब्राहिम लोधी के साथ पानीपथ में हुई, लगातार कई दिनों तक चले इस युद्ध में इब्राहिम लोधी की मौत हो गई और इस तरह से कोहिनूर बाबर के कब्जे में आ गया, और कोहिनूर से प्रभावित होकर बाबर ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में कोहिनूर की खूब चर्चा की, बाबर ने कोहिनूर की तारीफ करते हुए लिखा कि ये हीरा इतना बेशकीमती है कि इसकी कीमत से दुनिया को एक दिन का खाना खिलाया जा सकता है। हालांकि बाबर ने बाबर नामा ने कही भी इस हीरे का नाम कोहिनूर मेंशन नहीं किया था, जिससे एक बात को साबित होती है कि उस समय तक इस हीरे को कोई भी नाम नहीं दिया गया था।
बाबर के बाद हुमायू मुग़ल डायनेस्टी का अगला राजा बना और सत्ता के साथ कोहिनूर भी उसके पास आ गया, सत्ता मिलने के कुछ साल बाद ही उसका एम्पायर बिखरने लग गया, उसके भाइयों ने ही उसके विरुद्ध विद्रोह शुरू कर दिया, जिस कारण उसे अपना साम्राज्य अपने भाइयों के साथ बाटना पड़ गया, अपने भाइयों से निपटने के बाद उसने अपने एम्पायर को फिर से खड़ा करना शुरू ही किया था कि उस पर अफगान शासक शेर शाह सूरी ने हमला कर दिया, दो सालों में दोनों के बीच चौसा और कन्नौज में दो युद्ध लड़े गए, और इस युद्ध में दोनों ही बार हुमायू को मुकि खानी पड़ी और उसे अपना सब कुछ छोड़कर ईरान भागकर राजा तहमास के यहाँ शरण लेना पड़ गया, राजा तहमास ने उसका स्वागत करते हुए उसे कई वर्षों तक अपने संरक्षण में रखा, उनके इस व्यवहार से खुश होकर हुमायू ने उन्हें कोहिनूर उपहार में दे दिया, इस तरह से कोहिनूर पहली बार भारत से बाहर ईरान जा पंहुचा।
ईरान के राजा तहमास के पास लगभग 3 वर्षों तक कोहिनूर था, इसके बाद कोहिनूर एक बार फिर भारत लौट आया, जहां कोहिनूर को हथियाने के लिए अब तक कई राजाओं ने हजारों लाशें बिछा दी थी। तो वहीं राजा तहमास की इसमें कोई भी खास दिलचस्पी नहीं थी। इसलिए उन्होंने इसे अहमद नगर के राजा और अपने परम मित्र हुसैन निज़ाम शाह को भेंट कर दिया, जो कोहिनूर के दीवाने थे भारत आने के बाद कोहिनूर कुछ सालों तक निजाम शाह के पास ही रहा, और फिर उनसे होते हुए गोलकुंडा के राजा क़ुत्ब शाह के पास पहुंच गया, वर्ष 1656 में यह हीरा किसी तरह से क़ुत्ब शाह के प्रधानमंत्री मेरे जुमला के हाथ लग गया, जिसका इस्तेमाल उसने शाहजंहा के करीब जाने में किया, शाहजहां को आकर्षक चीजों का बहुत शौक था, इसी शौक के चलते उसे पीकॉक थ्रोन बनवाना शुरू किया, कहा जाता है कि इस पीकॉक थ्रोन को बनवाने के लिए शाहजहां ने ताजमहल से दोगुना खर्चा किया था, उसने इस सिंघासन में कई तरह के डायमंड गोल्ड और बेसकीमती स्टोन लगवाए और कोहिनूर को इस सिंघासन के सबसे ऊपरी हिस्से में जगह दी, लेकिन इस सिंघासन पर शाहजहां ज्यादा समय तक नहीं बैठ सका, और आगे चलकर उसके ही बेटे औरंगजेब ने उसे गिरफ्तार करवा कर जेल में डलवा दिया। औरंगजेब ने अपने पिता की सत्ता हथियाने के साथ साथ कोहिनूर को भी हड़प लिया, कोहिनूर को देखने के बाद औरंगजेब इससे बहुत अधिक प्रभावित हुआ और उसने इस हीर को और भी आकर्षक बनाने के लिए एक मशहूर जोहरी को इसे तराशने का काम सौंप दिया, लेकिन इसे तराशने के दौरान कोहिनूर का काफी हिस्सा टूट गया, जिससे यह 793 कैरट की जगह महज 186 कैरट का ही रह गया। लेकिन तब औरंगजेब को इस बात की खबर मिली तो वह बहुत गुस्सा हुआ, और उसने उस जौहरी पर भरी जुर्माना लगाकर कोहिनूर को अपने खजाने में रखवा दिया।
जहां कोहिनूर अपनी चणक ले लिए मशहूर था, तो वहीं इसके बारें में ये भी कहा जाता है कि इस हीरे को जिसने भी अपने पास रखा उसने शुरुआत में हर जगह अपनी जीत का परचम लहराया लेकिन बीतते समय के साथ ये हीरा ही उसकी बर्बादी का कारण बन गया। आने वाले वर्षों में लोगों ने इस बात को अपनी आँखों से सच होते हुए देखा, खोजे जाने के बाद से ये हीरा जिस भी राजा के पास गया उसका एम्पायर और भी तेजी से साथ बिखरकर बर्बाद हो गया, मुग़ल बादशाह, बाबर, हुमायू और शाहजहां के पास कोहिनूर रहा था और उन्हें अपने शासन के अंत में सबसे बुरे दौर से गुरजना पड़ा, जबकि ये हीरा कभी भी मुगल सम्राट अकबर के पास नहीं रहा और वह मुगलों में सबसे लोकप्रिय शासक रहे।
मुगलों के बिखरते साम्राज्य के बीच कोहिनूर इसी डायनेस्टी के राजा मोहम्मद शाह रंगीला के पास पंहुचा। जिन्हे बहदुर शाह रंगीला के नाम से भी जाना जाता था, मुग़ल इस दौरान कमजोर पड़ चुके थे, इसी बात का लाभ उठाते हुए ईरान के शासक नादिर शाह ने हमला कर बहादुर शाह रंगीला के एम्पायर को तहस नहस कर दिया उसने सम्पूर्ण दिल्ली में भयानक रूप से कत्लेआम मचाया, जो भी उसके रास्ते आया वह अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठा चंद दिनों में ही नादिर शाह ने मुगलों की सारी सम्पति को लूट लिया और शाहजहां द्वारा बनवाया गया पीकॉक थ्रोन भी अपने कब्जे में ले लिया, लेकिन अब तक उसे वो कोहिनूर नहीं मिला था। जिसकी चमक के चर्चे उसने हर किसी से सुने हुए थे दरअसल कोहिनूर अब तक उसके हाथ नहीं लगा था क्योंकि बहादुर शाह रंगीला उसे अपनी पगड़ी में छुपा कर रखता था, नादिर शाह को जब इस बात की खबर लगी तो उसने कोहिनूर को हासिल करने के लिए बहादुर शाह से अपनी जीत की ख़ुशी मानाने के लिए एक दूसरे की पगड़ी पहनने के लिए कहा, बहादुर शाह जो पहले ही हार चुके थे अब वह इस बात से इंकार भी नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्हें अपनी पगड़ी उतारने के लिए मजबूर होना पड़ा जब उन्होंने अपनी पगड़ी उतारी वैसे ही हीरा जमीन पर गिर गया और उसकी रौशनी चारो तरफ फ़ैल गई। इसे देखते ही नादिर शाह चकते में पड़ गया और अचानक ही उसके मुँह से कोहिनूर नाम निकल गया दरअसल कोहिनूर का मतलब था ''माउंटेन ऑफ़ लाइट'' तब से ही ये हीरा कोहिनूर के नाम से जाना जाने लगा।
कुछ समय के बाद कोहिनूर के साथ नादिर शाह बहुत सारी सम्पति लूट कर ईरान लौट आया, लेकिन वक़्त बदलने के बाद भी उसकी कोहिनूर को लेकर दिलचस्पी कम नहीं हुई और वह हमेशा ही उसे अपनी नज़रों के सामने रखना चाहता था, और फिर नादिर शाह ने कोहिनूर को अपनी बाह पर बांधना शुरू कर दिया कुछ समय तक सब कुछ सही चला लेकिन बाद में कोहिनूर ने नादिर शाह के एम्पायर पर भी असर दिखाना शुरू कर दिया, उसकी जिंदगी इस कदर बारबार हुई की अंतिम समय में उसका मानसिक संतुलन खो दिया, इसी बात का फ़ायदा उठाकर उसे अंगरक्षकों सलाह खान और मोहम्मद खान काजर ने उसकी हत्या कर दी। जिसके कुछ समय के पश्चात नादिर शाह के अकाउंटेंट मोहम्मद काजिम मरावी ने आलम अराय नदरि नाम से एक किताब लिखी, जिसमे इस हीरे का नाम कोहिनूर मेंशन किया गया था, जो कि इस हीरे के नाम का फर्स्ट वैलिड सबूत है। लेकिन नादिर शाह की मौत के बाद उसके एम्पायर पर अहमद शाह दुर्रानी का कब्ज़ा हो गया, जिसके बाद वह कोहिनूर को ईरान से अफगानिस्तान लेकर चला गया।
इसके बाद अहमद शाह दुर्रानी के वंशज शाह शुजाह दुर्रानी के पास कोहिनूर आ गया, बदलते वक़्त के साथ राज सिंघासन बदल जाते है कोहिनूर पर मालिकाना हक़ रखने वाले राजा बदल जाते लेकिन एक चीज ऐसी थी जो कभी नहीं बदलती थी, और वह थी कोहिनूर की चमक और उसको लेकर लोगों का आकर्षण। एक बार किसी ने शाह शुजाह दुर्रानी की बेगम से कोहिनूर की कीमत का अनुमान लगाने के लिए कहा- बेगम ने इसका उत्तर देते हुए कहा कि यदि चार ताकतवर पहलवानों से चारों दिशाओं में एक-एक पत्थर फेंकवाया जाए और एक पत्थर को आकाश की ओर उछाल दिया जाए, इसके बाद पांचो पत्थरों ने जितना डिस्टेंस कवर किया एवं उन्हें गोल्ड से भर दिया जाए तो भी उनकी कीमत कोहिनूर जितनी नहीं हो सकती बेगम की इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि कोहिनूर क्यों इतना प्राइस लेस और कीमती था, सत्ता और कोहिनूर को पाने के बाद शुरू-शुरू में शाह शुजाह दुर्रानी के शासन काल में सब ठीक था उसने आस पास के राज्यों को जीतकर अपनी शक्ति बढ़ा ली थी लेकिन उसके परिवार में ही फूट पड़ गई और उसके भाइयों ने उसे गद्दी से उतार फेंका, शुजाह दुर्रानी को अपनी बेगम के साथ अफगानिस्तान से भागकर लाहौर आना पड़ा, जहां राजा रणजीत सिंह ने उन्हें शरण दी।
राजा रणजीत सिंह ने न सिर्फ शाह शुजाह दुर्रानी की सहायता की बल्कि उसे फिर से अपनी सत्ता हासिल करने के लिए मोटीवेट किया फिर से सत्ता को हासिल करने के क्रम में उसने अटॉक पर हमला किया लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा, अटॉक के शासक जहान दाद खान ने उसे गिरफ्तार कर लिया, और श्रीनगर की जेल में बंद कर लिया, जैसे ही इस बात की खबर राजा रणजीत को लगी उन्होंने तुरंत ही अपने कमांडर हुकुमचंद को उसे छुड़वाने के लिए भेजा, जिसके बाद हुकुमचंद ने उसे छुड़वाकर लाहौर वापस ले आए, महाराजा रणजीत सिंह द्वारा अपने पति को रिहा कराने से बेगम वफ़ा बेहद ही खुश हुई और उन्होंने कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह को गिफ्ट के तौर पर दे दिया।
महाराजा रणजीत सिंह सिख एम्पायर के राजा थे उस समय भारत में अंग्रेजों की हुकूमत थी, इसलिए उनके राजघराने में कई अंग्रेज अफसरों का आना जाना लगा रहता था, कोहिनूर हासिल करने के बाद जब भी अंग्रेज अफसर उनके घर जाते वह बड़ी ही शान से कोहिनूर को दिखाकर उसकी प्रशंसा किया करते थे, वह बड़े -बड़े त्यौहार जैसे दिवाली और दशहरे पर अपने हाथ में बांधकर लोगों के बीच घुमा करते थे। कोहिनूर उन्हें इतना अधिक प्यारा था कि कई बार युद्ध के दौरान भी इसे अपने साथ लेकर जाते थे, शुरूआती दौर में जब कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के पास आया था तब उन्होंने कई अहम् युद्ध में जीत हासिल की थी। लेकिन ये उनकी जिंदगी में आने वाले भूचाल के पहले की शांति थी वक़्त के साथ साथ महाहराजा रणजीत सिंह पर भी अपना असर दिखाना शुरू कर चुका था 1839 तक उन्हें कई तरह की बीमारियों ने घेर लिया, एक समय पर शेर-ए-पंजाब कहलाने वाले महाजरा की हालत इतनी अधिक ख़राब हो गई कि वह खुद से उठ पाने के काबिल भी नही बचे अपनी जिन्दगी के आखिरी दिनों को करीब देख महाराजा रणजीत सिंह काफी दान पुन्य करने लग गए थे। उन्होंने अपने पास रखी कई चीजों को मंदिरों और गुरुद्वारों में दान कर दिया था, उनकी दिली ख्वाहिश थी कि कोहिनूर को भी किसी मंदिर में दे दिया जाए लेकिन, उनके मंत्री इसके लिए नहीं माने जिस कारण कोहिनूर मंदिर को दान नहीं हो सका। इस इच्छा के पूरा हुए बिना ही 27 जून 1839 को उनकी मृत्यु हो गई, कोहिनूर को मंदिर में दान करने की खबर को कई ब्रिटिश न्यूज़ पेपर ने विस्तार से छापा, इस खबर ने महारानी विक्टोरिया का भी ध्यान खींचा, जिसके बाद ही महारानी विक्टोरिया ने अपने अधिकारीयों से कोहिनूर पर नजर बनाए रखने के लिए बोला।
महाराजा रणजीत की मौत के बाद उनके बेटे खड़क सिंह, सिंह एम्पायर के राजा बने , लेकिन उनके लिए इतने बड़े एम्पायर को अकेले संभालना बेहद ही मुश्किल हो रहा था, उनके करीबी लोग ही उनके खिलाफ साजिश रच रहे है राजा बनने के कुछ ही समय के पश्चात खड़क सिंह को जहर देकर मार दिया गया, अब तक सिख एम्पायर की यूनिटी में दरार पड़ चुकी थी, लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो चुके थे। तकरीबन 4 वर्षों तक ऐसा ही चला, इस बीच महाराजा रणजीत सिंह के कई पुत्र राजा बने लेकिन उन सभी को मौत की नींद सुला दिया गया अब सिख एम्पायर की सत्ता को सँभालने वाले केवल उनकी सबसे छोटे बेटे दुलीप सिंह ही बचे थे इतनी छोटी उम्र के होने के बाद भी सिख एम्पायर को बचाने के लिए उन्हें राजा बना दिया गया हालांकि दुलीप सिंह नाम के बस राजा थे। असल में सिख एम्पायर की बागडोर उनकी माँ रानी जींद कौर के हाथों में थी। अनुभवहीन राजा और बढ़ती जलन को देखते हुए ब्रिटिश को एक अच्छा मौका दिखाई दिया और उन्होंने 1845 में पंजाब पर हमला कर दिया सिखों के लिए अंग्रेजी सेना का सामना करना बहुत मुश्किल हो गया। इसके कुछ ही दिनों के बाद अग्रेजों ने युद्ध को जीता और उन्होने सिख एम्पायर से कश्मीर को भी छीन लिया इसके 4 वर्ष बाद 1849 के शुरूआती महीने में ब्रिटिशर्स ने सिख एम्पायर पर अटैक कर दिया, कमजोर पड़ चुके सिख एम्पायर की सेना जल्द ही पीच हट गई और 29 मार्च 1849 को अंग्रेजों ने लाहौर फोर्ट पर अपना कब्ज़ा जमा लिया। अग्रेजों ने सिखों के सामने लाहौर ट्रीटी का प्रपोजल रखा जिसे सिक्खो को मजबूरन मानना पड़ा, इस ट्रीटी के बाद अंग्रेजों ने महाराजा दुलीप सिंह को 50 हजार पाउंड की एनुअल पेंशन देने की घोषणा कर दी, जिसकी कीमत आज के समय के 65 करोड़ है। इसके बाद उन्होंने दुलीप सिंह की माँ को जेल में डाल दिया और उन्हें महराई विक्टोरिया के पास लंदन भेज दिया इस तरह और इसी तरह से अंग्रेजों ने सिख एम्पायर की सत्ता के एक होने की आखिरी उम्मीद को भी तोड़ दिया।
सिख एम्पायर को हड़पने के बाद गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी कोहिनूर को लेने लाहौर फोर्ट आए थे, यहाँ से कोहिनूर को हासिल करने के बाद उन्होंने 6 अप्रैल 1850 को एक शिप से महारानी विक्टोरिया के पास ब्रिटेन भेज दिया, कोहिनूर को ब्रिटेन ले जाने वाली शिप को रास्ते में कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा जब शिप बीच समुद्र में था उस समय एक तेज तूफ़ान के कारण जहाज एकदम डूबने के करीब पहुंच गया था। किसी तरह करीब 3 माह के बाद शिप 29 जून 1850 को ब्रिटेन पंहुचा, इसे इतना गुपचुप तरीके से ब्रिटेन भेजा गया कि किसी खबर शिप में सवार किसी भी व्यक्ति को नहीं लगी, इसके बाद कोहिनूर को महारानी विक्टोरिया के पास पहुंचाया गया, बाद में जब इस बात की खबर लोगों को लगी तो इसे देखने के लिए उनकी भीड़ जमा होने लगी लेकिन लगभग 3 वर्षों के बाद लन्दन के क्रिस्टल पैलेस में रखा गया। ये भी सामने आया कि वहां की जनता ने जब इसे देखा तो उन्हें बिलकुल भी पसंद नहीं आया , जैसे ही लोगों के रिएक्शन की खबर रानी को लगी तो उन्हें बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा।
उन्होंने कोहिनूर को और भी ज्यादा आकर्षित बनाने के लिए इसे यूरोपियन स्टाइल में तराशने के आदेश दिए, वह चाहती थी कि इसे ऐसी शेप दी जाए कि उनके ताज में आसानी से फिट किया जा सके, तकरीबन 38 दिनों तक तराशकर महारानी विक्टोरिया के ताज में लगा दिया गया, इस बार तराशे जाने के बाद इस हीरे का वजन 105 कैरट रह गया, कोहिनूर को अपने ताज में लगवाने के बाद विक्टोरिया ने इसे अंतिम साँस तक पहना, और महारानी विक्टोरिया की मौत के बाद भी इसे किसी राजा के बजाय केवल महारानियों को ही पहनाया गया, जिस तरह की बातें और बिलीव इसको लेकर क्रिएट किया गया था उसको कहीं न कही अंग्रेज भी मानते थे, बिलीव के हिसाब से कोहिनूर को जो भी आदमी अपने पास रखता उसका नुकसान ही होता, लेकिन कोहिनूर के कर्स का किसी औरत पर कोई प्रभाव नहीं होता, इसलिए पीढ़ी दर पीढ़ी इसे ब्रिटेन की महारानियों ने इस्तेमाल किया, और बाद में ये ब्रिटेन की दारोहर बनकर रह गया।
लम्बे समय से ब्रिटिश राजघरानों में रानियों की शोभा बढ़ाते हुए ये कोहिनूर अब भारत की पहुंच से बहुत दूर जा चुका था, पर जब 1947 में भारत आजाद हुआ तब भारत सहित कई अन्य देश कोहिनूर पर अपना हक़ जताते हुए ब्रिटेन से इसकी मांग करने लगे, कोहिनूर अलग अलग समय पर अलग अलग देश के भिन्न-भिन्न राजाओं के पास था, इसलिए उन सभी का मानना था कि कोहिनूर पर उनका हक है। कई देश के द्वारा क्लेम आने के बाद ब्रिटेन ने कोहिनूर को इनमे से किसी को भी देने से इंकार कर दिया, अब तक कोहिनूर पर इंडिया, पकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान अपना हक़ जता चुके है, वहीँ भारत सरकार इसे इंडिया भेजने की कई बार अपील कर चुकी है, लेकिन ब्रिटेन हर इसे लौटाने में आना कानि करता रहा है। भारत ने आजादी के तुरंत बाद 1947 और 1953 में इस पर अपना क्लेम किया था लेकिन ब्रिटेन गवर्नमेंट ने इसे नो नेगोशिएबल बता कर भारत को सौपने से साफ़ तौर पर मना कर दिया। लेकिन इसके बाद भी इंडियन गवर्नमेंट ने इसे पाने की आस नहीं छोड़ी और साल 2000 में भारत के लिए कई MP ने एक साइन डॉक्यूमेंट ब्रिटेन को भेज कोहिनूर को वापस लौटाने की मांग की, लेकिन हर बार की तरह इस बार भी भारत के हाथ केवल निराशा ही हाथ आई। ब्रिटेन ने ये कहते हुए भारत की इस मांग को ठुकरा दिया कि कोहिनूर अलग अलग समय में अलग अलग देशों का हिस्सा रहा है, लेकिन अब ये करीब 150 सालों से ब्रिटेन की हेरिटेज का हिस्सा है, इसलिए इसे भारत को नहीं लौटाया जा सकता। इस घटना के 15 साल बाद वर्ष 2015 में शशि थरूर को एक स्पीच के लिए ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी बुलाया गया। उस स्पीच में उन्होंने 200 वर्षों भारत से लूटी गई सम्पति के लिए ब्रिटिश सरकार की कड़ी निंदा की थी, इस दौरान कोहिनूर और अन्य भारतीय धरोहरों का भी जिक्र किया जो अब ब्रिटेन के पास है। इसके ठीक एक वर्ष बाद 2016 में एक NGO सुप्रीम कोर्ट में पिटीशन फाइल की जिसमे भारत सरकार से ब्रिटेन द्वारा चुराए गए कोहिनूर को वापस भारत लाने के बारें में कई सवाल पूछे गए, बाद में जब इस केस की सुनवाई की गई तब इंडियन गवर्नमेंट को सॉलिसिटर जनरल रणजीत कुमार ने रेप्रेज़ेंट किया था सुनवाई में उनका कहना था कि ब्रिटेन ने कोहिनूर को सिख एम्पायर के राजा दुलीप सिंह से एक ट्रीटी के तहत हासिल किया था। उनके इस तर्क के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने ब्रिटेन द्वारा कोहिनूर को चोरी करने की बात को ख़ारिज कर दिया।