ईरान में हिजाब हटाने की जिद और भारत में पहनने की..! ये दोहरा मापदंड क्यों?

हिजाब इस्लाम में एक अहम मुद्दा माना जाता है, फिर ऐसा क्यों है कि एक मुस्लिम देश की महिलाएं हिजाब से आज़ादी चाहती हैं, वहीं भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में कक्षा के अंदर भी हिजाब पहनने की जिद की जा रही है। जबकि, सीरिया-मिस्त्र जैसे इस्लामी देशों में भी कक्षा में बुर्का प्रतिबन्धित है, तो भारत में विवाद क्यों?

ईरान में हिजाब हटाने की जिद और भारत में पहनने की..! ये दोहरा मापदंड क्यों?

ईरान और भारत में हिजाब को लेकर मुस्लिम महिलाओं का दोहरा रवैया

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Highlights

  • ईरान का इतिहास।
  • ईरान का हिजाब विरोधी आंदोलन।
  • हिजाब को लेकर ईरान और भारत में असमानता।

तेहरान : ईरान में हाल ही में लागू किए गए हिजाब कानून ने न केवल देश के भीतर बल्कि वैश्विक स्तर पर भी विवाद खड़ा कर दिया है। यह कानून न केवल महिलाओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बाधित करता है, बल्कि कठोर दंड के माध्यम से सामाजिक नियंत्रण को भी मजबूत करता है। सितंबर 2023 में ईरानी संसद ने एक नया कानून पारित किया, जिसे हाल ही में गार्जियन काउंसिल ने स्वीकृति दे दी है। इस कानून के तहत हिजाब का उल्लंघन करने वालों के लिए सख्त दंड तय किए गए हैं, जिनमें मौत की सजा, कोड़े मारना, भारी जुर्माना, जेल की सजा, और शिक्षा व रोजगार पर प्रतिबंध शामिल हैं। 

यह कानून विशेष रूप से महिलाओं, ट्रांसजेंडर और गैर-बाइनरी व्यक्तियों को निशाना बनाता है। न्यायपालिका को यह अधिकार दिया गया है कि वह विदेशी संगठनों या मीडिया से जुड़े व्यक्तियों को ‘धरती पर अनाचार फैलाने’ के आरोप में मौत की सजा सुना सकती है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इस कानून की आलोचना की है। महिला अधिकार कार्यकर्ता मसीह अलीनेजाद ने इसे "महिलाओं को दबाने और समानता की लड़ाई खत्म करने का हथियार" बताया। उनका कहना है कि यह कोई कानून नहीं बल्कि आतंक का उपकरण है।

इतना कट्टर कैसे हो गया ईरान?

ईरान का इतिहास दर्शाता है कि यह देश कभी आधुनिकता और सांस्कृतिक समृद्धि का केंद्र था। प्राचीन फारसी साम्राज्य (पर्शिया) अपनी सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और राजनीतिक उन्नति के लिए प्रसिद्ध था। पारसी धर्म, जो ज़रथुस्त्र द्वारा स्थापित किया गया था, इस क्षेत्र में प्रमुख था। इस्लामी आक्रमण के बाद पारसी समुदाय को अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ी, और धीरे-धीरे ईरान इस्लामी प्रभाव के अधीन हो गया।

20वीं शताब्दी के दौरान, शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी के शासनकाल में ईरान ने आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाए। हिजाब अनिवार्य नहीं था, और महिलाओं को शिक्षा व रोजगार के समान अवसर दिए गए। लेकिन 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद, कट्टरपंथी मुल्लाओं ने सत्ता संभाली और ईरान की सामाजिक संरचना को इस्लामी कानूनों के अनुरूप बदल दिया। 1983 में इस्लामी सरकार ने सभी महिलाओं के लिए हिजाब पहनना अनिवार्य कर दिया और उल्लंघन करने पर 74 कोड़ों की सजा का प्रावधान रखा। यह कानून धीरे-धीरे महिलाओं पर सामाजिक नियंत्रण बढ़ाने का माध्यम बन गया।

महसा अमिनी की मौत और हिजाब विरोधी आंदोलन :

16 सितंबर 2022 को, 22 वर्षीय महसा अमिनी की मौत नैतिकता पुलिस की हिरासत में हो गई। उन पर आरोप था कि उन्होंने ठीक से हिजाब नहीं पहना था। उनकी मौत ने पूरे ईरान में विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया। महिलाओं ने सार्वजनिक रूप से हिजाब जलाए और अपने बाल काटकर विरोध किया। इन विरोध प्रदर्शनों में कई महिलाओं को अपनी जान गंवानी पड़ी, लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने अपेक्षित समर्थन नहीं दिया।

ईरान, अफगानिस्तान और अन्य इस्लामी देशों में महिलाओं की स्थिति को देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि कट्टरपंथी इस्लामी कानून महिलाओं के अधिकारों का हनन करते हैं। अफगानिस्तान में तालिबान ने भी महिलाओं की शिक्षा और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी पर प्रतिबंध लगा रखा है। इसी तरह, सऊदी अरब में भी महिलाओं को लंबे समय तक स्वतंत्रता से वंचित रखा गया था। हालाँकि, अब सऊदी अरब में काफी सुधार देखने को मिला है, मगर नए नए इस्लामी बने मुल्कों में ये अत्याचार अब भी जारी है।

इस्लामी कानूनों के तहत महिलाओं को पुरुषों की अनुमति के बिना यात्रा करने, काम करने और शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इन कानूनों के पीछे पितृसत्तात्मक सोच और धार्मिक कट्टरता प्रमुख कारण हैं।

भारत में हिजाब पहनने की जिद :

ईरान में जहाँ हिजाब विरोधी आंदोलन चल रहे हैं, वहीं, भारत में कक्षा के अंदर भी हिजाब/बुर्का पहनने की जिद जोर पकड़ रही है, जिसे राजनेताओं का भी समर्थन मिल रहा है। हालाँकि सऊदी अरब जैसे रूढ़िवादी देश ने भी परीक्षा के दौरान कक्षा में हिजाब पहनने पर प्रतिबन्ध लगाया है, क्योंकि उसका मानना है कि इससे चीटिंग हो सकती है। भारत में हिजाब को लेकर बहस तब शुरू हुई जब कुछ मुस्लिम छात्राओं ने कर्नाटक में शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पहनने की अनुमति की मांग की। इस मुद्दे पर कानूनी विवाद उत्पन्न हुआ और कर्नाटक हाई कोर्ट ने निर्णय दिया कि शैक्षणिक संस्थानों में निर्धारित यूनिफॉर्म का पालन अनिवार्य है, और कोई धार्मिक पोशाक की अनुमति नहीं होगी। इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जहां विभाजित निर्णय आया।

जहां एक ओर ईरान में महिलाएं हिजाब हटाने के लिए संघर्ष कर रही हैं, वहीं भारत में कुछ समूह इसे अनिवार्य बनाने की मांग कर रहे हैं। यह विरोधाभास इस बात को दर्शाता है कि धार्मिक पहनावे को जबरदस्ती लागू करने या प्रतिबंधित करने, दोनों ही स्थितियाँ महिलाओं की स्वतंत्रता का उल्लंघन करती हैं।

विकासशील इस्लामी देश क्यों मौन?

ईरान, अफगानिस्तान, और सऊदी अरब जैसे देशों में कट्टरपंथी इस्लामी कानूनों के बढ़ते प्रभाव के बावजूद, अधिकांश विकासशील और उन्नत इस्लामी देशों ने इन मुद्दों पर चुप्पी साध रखी है। यह प्रश्न उठता है कि क्या यह चुप्पी इस्लाम की वास्तविक शिक्षाओं को प्रतिबिंबित करती है या फिर यह राजनीतिक और सामाजिक जटिलताओं का परिणाम है? संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों ने ईरान के इस नए कानून की आलोचना की है, लेकिन राजनीतिक कारणों से कोई कठोर कार्रवाई नहीं की गई है। पश्चिमी देशों के दोहरे मापदंड भी इस मामले में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। ईरान का नया हिजाब कानून महिलाओं की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों का सीधा उल्लंघन है। यह कानून न केवल एक धार्मिक आदेश को लागू करने का प्रयास है, बल्कि सामाजिक नियंत्रण का भी एक उपकरण बन गया है। इस मुद्दे पर वैश्विक समुदाय को प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है ताकि महिलाओं के अधिकारों की रक्षा हो सके।

भारत और अन्य लोकतांत्रिक देशों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे महिलाओं की स्वतंत्रता का समर्थन करें और धार्मिक पहनावे को व्यक्तिगत चुनाव का विषय बनाएँ, किन्तु इसमें शैक्षणिक संस्थानों के नियमों का भी ख्याल रखा जाए। किसी भी प्रकार की धार्मिक जबरदस्ती या प्रतिबंध महिलाओं की स्वायत्तता को प्रभावित करता है और इस दिशा में संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। ईरान की महिलाएं आज भी अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष कर रही हैं और यह संघर्ष केवल उनका नहीं बल्कि संपूर्ण मानवता का संघर्ष है।

 

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