भारत में कितना बढ़ा है जाति व्यवस्था का स्तर?

जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक आधारवर्ण व्यवस्था से उत्पन्न जाति प्रणाली ने भारतीय समाज को जन्म आधारित सामाजिक वर्गों में बाँट दिया, जो समय के साथ सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता का कारण बनी।

भारत में कितना बढ़ा है जाति व्यवस्था का स्तर?

आधुनिक भारत की प्रगति की दौड़ में अब भी जाति की दीवारें सामाजिक असमानता की गूंज आज भी

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Highlights

  • जाति व्यवस्था आज भी भारत की सामाजिक संरचना में गहराई से जड़ें जमाए हुए है।।
  • संविधान ने जाति भेद को असंवैधानिक घोषित किया है, पर व्यवहार में इसके पूर्ण उन्मूलन में कठिनाई है।
  • राजनीति, शिक्षा, रोजगार, विवाह, और सामाजिक संबंधों में जाति का प्रभाव अभी भी व्यापक है।

भारत की सामाजिक संरचना में जाति व्यवस्था एक ऐतिहासिक और बेहद ही पुरानी व्यवस्था रही है। प्राचीन काल में यह समाज को व्यवस्थित करने का माध्यम थी, लेकिन समय के साथ यह सामाजिक भेदभाव, असमानता और शोषण का कारण बन गई। आज़ाद भारत में संविधान ने समानता और समावेशन के सिद्धांत को अपनाया, लेकिन जाति की छाया आज भी राजनीति, शिक्षा, नौकरियों, विवाह और सामाजिक व्यवहार में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यजाति व्यवस्था मूल रूप से वर्ण व्यवस्था पर आधारित थी, जिसमें समाज को चार वर्गों में बाँटा गया था — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। यह व्यवस्था कर्म और गुण आधारित मानी जाती थी, परंतु कालांतर में यह जन्म आधारित और कठोर सामाजिक ढांचे में बदल गई। इसने दलितों (पूर्व में ‘अछूत’ कहे जाने वाले) को समाज के सबसे निचले पायदान पर रखा, जिससे उन्हें शोषण और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा।

आधुनिक भारत में जाति की स्थिति :

संवैधानिक व्यवस्था और कानूनी प्रावधानभारतीय संविधान जाति पर आधारित किसी भी भेदभाव को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित करता है:

  • अनुच्छेद 15: राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
  • अनुच्छेद 17: अस्पृश्यता का उन्मूलन और इसके किसी भी रूप में प्रचलन को अपराध घोषित किया गया है।
  • अनुच्छेद 46: राज्य अनुसूचित जातियों और जनजातियों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देगा।
  • इसके अतिरिक्त, अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 जैसे कानून जातीय उत्पीड़न को रोकने हेतु लागू किए गए।

जाति का सामाजिक प्रभाव

1. सामाजिक विभाजनजातीय पहचान आज भी गाँवों और कस्बों में सामाजिक पदानुक्रम और रिश्तों को तय करती है।

  •  भोजन, विवाह, अंतिम संस्कार, और मंदिरों में प्रवेश तक जाति के आधार पर भेदभाव देखा जाता है।
  • विवाह और रिश्तेआज भी भारत में लगभग 90% विवाह जाति के अंदर होते हैं।
  • अंतरजातीय विवाह करने वालों को सामाजिक बहिष्कार, हिंसा और 'ऑनर किलिंग' तक का सामना करना पड़ता है।

2. दलित उत्पीड़न: हाल के वर्षों में दलितों के विरुद्ध अपराधों में वृद्धि हुई है।

  • सफाईकर्मियों, मेहतरों और मैनुअल स्कैवेंजर्स को अभी भी जाति के आधार पर ही चुना जाता है।
  • राजनीति में जाति की भूमिका वोट बैंक की राजनीतिजाति राजनीति का प्रमुख आधार बन चुकी है।
  • राजनीतिक दल विशेष जातियों को लुभाने के लिए टिकट वितरण, घोषणाएं और आरक्षण की रणनीति अपनाते हैं।
     

3. जातीय संगठनों और नेताओं का उदयजाति आधारित संगठन जैसे कि कुर्मी महासभा, यादव सेना, जाट महासभा आदि ने राजनीतिक ताकत बनाई है। लालू प्रसाद यादव, मायावती, कांशीराम, मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं ने जातीय आधार पर बड़े जनाधार बनाए।

आर्थिक दृष्टिकोण से जाति का प्रभाव

1. रोजगार और अवसर ऐतिहासिक भेदभाव ने दलितों और पिछड़ी जातियों को आर्थिक रूप से पिछड़ा रखा।

2. उच्च जातियों को लंबे समय तक भूमि, व्यापार और शिक्षा के अवसर प्राप्त थे।

3. आरक्षण प्रणाली सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण एक सकारात्मक कार्रवाई रही है।

  • आरक्षण ने नौकरियों और शिक्षा में दलितों व पिछड़ों की भागीदारी बढ़ाई है।
  • परंतु इसका दुरुपयोग और "क्रीमी लेयर" जैसी समस्याएं भी सामने आई हैं।
  • शिक्षा में जाति का प्रभावजाति आधारित भेदभाव आज भी विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में मौजूद है।
  • दलित छात्रों को अलग बिठाना, उनका उपहास करना, या शिक्षक का भेदभाव – ये समस्याएं गंभीर रूप से मौजूद हैं।
  • आत्महत्या करने वाले कई छात्र (जैसे रोहित वेमुला) जातीय भेदभाव के शिकार रहे हैं।

शहरी बनाम ग्रामीण दृष्टिकोण

1. ग्रामीण भारतयहाँ जाति की पकड़ बहुत मजबूत है। भूमिहीनता, अस्पृश्यता, और सामाजिक बहिष्कार जैसी समस्याएँ अब भी मौजूद हैं।

2. शहरी भारत : शहरों में जाति का प्रभाव थोड़ा कम है, परंतु नौकरी, मैरिज ब्यूरो, सामाजिक क्लब आदि में जातीय झुकाव स्पष्ट है।

3. मीडिया और जाति : मुख्यधारा की मीडिया अक्सर जातीय अत्याचारों को महत्व नहीं देती। सोशल मीडिया ने एक नया मंच दिया है जहाँ दलित आवाज़ें उभर रही हैं। कई ऑनलाइन आंदोलन जैसे #DalitLivesMatter ने जागरूकता बढ़ाई है।

जाति व्यवस्था में बदलाव की पहलें

1. सामाजिक आंदोलनडॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा चलाया गया आंदोलन दलितों के अधिकारों के लिए मील का पत्थर रहा। बहुजन आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन, भीम आर्मी जैसे संगठन जातीय न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं।

2. शैक्षणिक सशक्तिकरणआरक्षण और विशेष योजनाओं ने दलितों के उच्च शिक्षा में प्रवेश को संभव बनाया है। कई दलित आईएएस/आईपीएस अधिकारी, प्रोफेसर और डॉक्टर बनकर सामाजिक दृष्टिकोण बदल रहे हैं।

जाति व्यवस्था: समाधान और भविष्य की दिशा

  • शिक्षा का प्रसारगुणवत्तापूर्ण और समावेशी शिक्षा जातीय भेदभाव को मिटाने का प्रभावी तरीका है।
  • सामाजिक जागरूकताजाति को केवल कानूनी नहीं, सामाजिक रूप से भी समाप्त करने की ज़रूरत है।
  • धर्मगुरुओं, शिक्षकों, और नेताओं की ज़िम्मेदारी है कि वे समता और समरसता का प्रचार करें।
  • कानूनों का सख्त पालनजातीय उत्पीड़न के मामलों में तेज़ और निष्पक्ष न्याय प्रणाली आवश्यक है।
  • अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहनऐसे जोड़ों को आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा दी जानी चाहिए।
  • आरक्षण प्रणाली ने कुछ सकारात्मक परिणाम दिए हैं, पर असमानताओं को पूरी तरह मिटाने में अभी समय लगेगा।

सामाजिक जागरूकता, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, अंतरजातीय विवाह और कानून के सख्त क्रियान्वयन से जातिवाद को जड़ से समाप्त किया जा सकता है। उपसंहारजाति व्यवस्था भारत की एक ऐसी सामाजिक चुनौती है जो केवल कानूनी उपायों से समाप्त नहीं की जा सकती। यह मानसिकता और सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन से ही दूर होगी। जब तक प्रत्येक भारतीय जाति के परे इंसान को इंसान के रूप में देखने नहीं लगेगा, तब तक सच्ची सामाजिक समता संभव नहीं है। इसके लिए शिक्षा, संवेदना और नैतिक नेतृत्व की आवश्यकता है।

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